Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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: ६-२, ४३] ६. दानफलम् २
२७९ पताका द्वात्रिंशत्सहस्त्रनाट यशाला तदन्तिकेऽष्टादशसहस्रम्लेच्छराजानः एकलक्षकोटिहलानि अजितंजयो रथोऽभूदित्यादिनानाविभूत्यालंकृतो भरतः सुखेनास्थात् ।
एकदा[स सत्पात्राय सुवर्णादि दातुमना बभूव। महर्षयःस्वर्णादिकं न गृह्णन्ति,गृहस्थेषु पात्रपरीक्षार्थ राजाङ्गणं धान्यादिप्ररोहैः पुष्पादिभिश्च संछन्नं कृत्वा त्रिवर्णजान् नरानाहाययति स्म। तत्रातिनास्तत्प्ररोहादीनामपरि नागताः.बहिरेव स्थिताः।चक्री पप्रच्छ-पतेऽन्तः किमिति' न प्रविशन्ति । ततः केनचित्तन्निकटं गत्वोक्तं 'किमिति राजगेहं न प्रविशथ' इति । ऊचुस्ते मार्गशुद्धिर्नास्तीति । श्रुत्वा तेन चक्री पुनर्विज्ञप्तो देवैवं वदन्ति । ततो मार्गशुद्धि विधायान्तःप्रवेश्य तेषां व्रतदाढर्थ विलोक्य जहरे । तदनु 'यूयं रत्नत्रयाराधकाः' इति भणित्वा रत्नत्रयाराधकत्वद्योतकं यज्ञोपवीतं तत्कण्ठे चिक्षेप । 'ब्रह्मा आदिदेवो येषां ते ब्राह्मणाः' इति व्युत्पत्त्या ब्राह्मणान् कृत्वा तेषां ग्रामादिकमदत्त ।।
एकदा चक्री जिनं पप्रच्छ-ब्राह्मणा अग्रे कीदृशाः स्युः। स्वामी वभाण-शीतलभट्टारकजिनान्तरेजैनद्वेष्याः स्युः। श्रुत्वा चक्रो स्वप्रतिष्ठा पुनर्नाशयितुमनुचितमिति विषण्णोगृहसिंहवाहिनी नामकी शय्या, रविप्रभ ( सूर्यप्रभ ) छत्र, आकाशमें फहरानेवाली बयालीस पताकायें बत्तीस हजार नाट्यशालाये, उसके समीपमें अठारह हजार म्लेच्छ राजा, एक लाख करोड़ हल और अजितंजय नामका रथ था । इस तरह अनेक प्रकारकी विभूतिसे सुशोभित वह भरतचक्रवर्ती सुखसे कालयापन कर रहा था।
एक समय महाराज भरतके मनमें किसी उत्तम पात्रके लिए स्वर्णादिके देनेकी इच्छा हुई। उस समय उन्होंने विचार किया कि महर्षि तो सुवर्णादिको ग्रहण करते नहीं है, अत एव किन्हीं गृहस्थों को ही उसे देना चाहिए। इस विचारसे उन्होंने उन गृहस्थों में से योग्य गृहस्थोंकी परीक्षा करनेके लिए राजांगणको धान्य आदिके अंकुरों और फूलों आदिसे आच्छादित कराकर तीनों वर्णांके मनुष्यों को बुलाया। तब उनमें से जो अतिशय जिनभक्त थे-अहिंसावतका पालन करते थे-वे उन अंकुरों आदिके ऊपरसे नहीं आये, किन्तु बाहिर ही स्थित रहे । तब चक्रवर्तीने पूछा कि ये लोग भीतर प्रवेश क्यों नहीं कर रहे हैं ? इसपर किसी राजपुरुषने उनके पास जाकर पछा कि आप लोग राजभवनके भीतर क्यों नहीं प्रविष्ट हो रहे हैं ? इसके उत्तरमें वे बोले कि मार्ग शुद्ध न होनेसे हम लोग भीतर नहीं आ सकते हैं। यह सुनकर उक्त राजकर्मचारीने चक्रवर्तीसे निवेदन किया कि वे लोग मार्ग शुद्ध न होनेसे भवनके भीतर नहीं आ रहे हैं। तब भरतने मार्गको शुद्ध कराकर उन्हें भवनके भीतर प्रविष्ट कराया । इस प्रकार उनके व्रतकी दृढ़ताको देखकर भरतको बहुत हर्ष हुआ। तत्पश्चात् उसने 'आप लोग रत्नत्रयके आराधक हैं' यह कहते हुए उनके कण्ठमें रत्नत्रयकी आराधकताका सूचक यज्ञोपवीत डाल दिया। फिर उसने 'ब्रह्मा अर्थात् आदिनाथ जिनेन्द्र जिनके देव हैं वे ब्राह्मण हैं' इस निरुक्तिके अनुसार उन्हें ब्राह्मण बनाकर उनके लिए गाँव आदिको दिया ।
एक बार भरत चक्रवर्तीने जिन भगवान्से पूछा कि मेरे द्वारा स्थापित ये ब्राह्मण भविष्यमें कैसे होंगे ? जिन भगवान् बोले- शीतलनाथ तीर्थकरके पश्चात् ये जैन धर्मके द्वेषी बन जावेंगे।
१. शब किन। २. श गत्वोक्तमिति । ३. ब प्रविशतेति । ४. ब तत्कंधे। ५. ब आदिदेवो देवता येषां । ६. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श जिनान्तरे द्वेष्यः । ७. श चक्री प्रतिष्टां।
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