Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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: ६-२, ४३ ] ६. दानफलम् २
२७५ पश्चिमम्लेच्छखण्डराजानो युद्ध जित्वा सेनापतिना पानीय तस्य दर्शिताः। चक्रिणा तथैव मुक्ताः । गुहाभ्यन्तरेण काकिणीरत्नलिखितचन्द्रार्कप्रकाशेनोत्तरमध्यम्लेच्छखण्डं प्रविश्य चर्मरत्नस्योपरि शिबिरं विमुच्य उपरिच्छत्ररत्नं धृतम्'। उभयमपि मिलित्वा कुक्कुटाण्डाकारेण स्थितम् । सेनापतिना सह चिलातावर्तप्रभृतिम्लेच्छराजानो युद्धं कृतवन्तः, नष्ठा स्वकुलदेवता मेघकुमारान् शरणं प्रविष्टाः। तैरागत्य चक्रवर्तिन उपसर्गः कृतः । तद्भेदयितुमशक्का गत्वा सेनापतिना युद्धवन्तः। तेन सर्वे महा-आहवे निर्जिताः, तेषां राज्यचिह्नानि गृहीत्वा मेघनादः कृतः, ततश्चक्रवर्तिना मेघेश्वर इति जयस्य नाम कृतम् । त्रीण्यप्युत्तराणि म्लेच्छखण्डानि साधयित्वा विद्याधरानपि । तदा नमि-विनमी स्वपुत्री सुभद्रां दत्त्वा भृत्यौ जाती। हिमवत्कुमारमपि साधयित्वा वृषभगिरौ नाम निक्षिप्य नाटयमालं साधयित्वा काण्डप्रपातगुहाद्वारमुद्घाटय तस्मानिर्गत्यार्यखण्डे प्रविष्टः । ततः पूर्व म्लेच्छखण्डं साधयित्वा कैलासे वृषभजिनं स्तुत्वा षष्टिसहस्राब्दैरयोध्यां प्राप्तः।
पुरप्रवेशे क्रियमाणे चक्रं न प्रविशति । किमिति पृष्टे प्रधानरुक्तं तव भ्रातरो नाद्यापि भाषण गर्मी छह महीनों में शान्त हुई। इस बीचमें सेनापतिने युद्ध में पश्चिम म्लेच्छखण्डके राजाओंको जीत लिया और तब उन्हें लाकर चक्रवर्तीके सामने उपस्थित कर दिया। भरत चक्रवर्तीने उन्हें सेवक बनाकर उसी प्रकारसे छोड़ दिया। फिर उसने काकिणी रत्नके द्वारा लिखे गये चन्द्र और सूर्योंके प्रकाशकी सहायतासे उत्तरके मध्यम म्लेच्छखण्डके भीतर प्रवेश किया। वहाँ उसने समस्त सेनाका डेरा चर्म रत्नके ऊपर डाला और फिर उसके ऊपर छत्र रत्नको धारण किया। इस प्रकार दोनोंके मिलनेपर उसका आकार मुर्गीके अण्डेके समान हो गया। वहाँपर चिलात और आवर्त आदि म्लेच्छ राजाओंने सेनापतिके साथ खूब युद्ध किया। अन्तमें वे रणभूमिसे भाग कर अपने कुलदेवतास्वरूप मेघकुमार देवोंकी शरणमें पहुँचे । तब उक्त देवताओंने आकर चक्रवर्तीकी सेनाके ऊपर बहुत उपसर्ग किया । परन्तु जब वे उस चर्म रत्न और छत्र रत्नके भेदनेमें समर्थ नहीं हुए तब वे सेनापतिके साथ युद्ध करनेमें तत्पर हुए। उसने उन सबको महायुद्धमें जीत लिया । तब उसने उनके राज्यचिह्नोंको छीनकर मेघ जैसा गर्जन किया। इससे चक्रवर्तीने जयकुमारका नाम मेघेश्वर प्रसिद्ध किया। इस प्रकारसे उसने तीनों उत्तर म्लेच्छखण्डोंको जीतकर तत्पश्चात् विजयार्ध पर्वतस्य विद्याधरोंको भी वशमें कर लिया। तब नमि और विनमि अपनी पुत्री सुभद्राको देकर सेवक हो गये। इसके पश्चात् भरत चक्रवर्तीने हिमवत्कुमार देवको भी जीतकर वृषभगिरि पर्वतके ऊपर अपना नाम लिखा । फिर उसने नाट्यमाल देवको वशमें करके काण्डप्रपात ( खण्डप्रपात ) गुफाके द्वारको खोला और उसमेंसे निकलकर आर्यखण्डमें आ गया । पश्चात् पूर्व म्लेच्छखण्डको जीतकर वह कैलाश पर्वतके ऊपर गया। वहाँ उसने ऋषभ जिनेन्द्रकी स्तुति की। इस प्रकार दिग्विजय करके वह साठ हजार वर्षोंमें अयोध्या वापिस आया।
महाराज भरत चक्रवर्ती जब नगरके भीतर प्रवेश करने लगे तब उनका चक्ररत्न वहीं रुक गया । भरतके द्वारा इसका कारण पूछे जानेपर मन्त्रियोंने कहा कि आपके भाई आज भी आपकी
१. ब धृत्वा । २. ज फ कुकृटांडाकारेण । ३. ब विनमी स्वभाग्नेयाय स्वभद्रां । ४. ब नाम । ५. श नाट्यमालां । For Private & Personal Use Only
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