Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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२६८ पुण्यास्रवकथाकोशम्
[६-२, ४३ : नाय राज्यपर्ट बद्ध्वा त्वद्वंश उग्रवंशो भवत्विति वाणारसी [वाराणसी दत्तवानित्यादिराजवंशांश्चकार, हा मा-धिक-नीत्या प्रजाः शिक्षयंस्त्रिषष्टिलक्षपूर्वाणि राज्यं कुर्वन् स्थितः ।
___ एकदा शकस्तद्वैराग्योत्पादनायान्तर्मुहूर्तावशेषायुषं स्वनर्तकी नीलंजसा तदने नर्तयति स्म । नृत्यरङ्ग एवादृशीभूतायास्तस्या मृतिमवगम्यातिवैराग्यं जगाम । लौकान्तिकसुराः समागत्य देव, समीचीनं कृतमिति बभणुः । स्वामी भरताय अयोध्यापुरम्, बाहुबलिने पौदनपुरमदत्त, वृषभसेनाय पुरिमतालपुरमुद्वृत्तकुमारेभ्यः काश्मीरदेशं दत्त्वा मङ्गलमजनानन्तरं मङ्गलभूषणालंकृतो भूत्वा सुरनिर्मितां सुदर्शनशिबिकामारुह्य भूचरादितदुद्धरणक्रमेण गत्वा सुरनिर्मितं मण्डपं प्रविश्य षण्मासोपवासप्रत्याख्यानपूर्वकं पूर्वाभिमुखमुपविश्य कच्छादिचतुःसहस्रः क्षत्रियैः 'नमः सिद्धेभ्यः' इत्युक्त्वा पञ्चमुष्टिभिः स्वकुन्तलानुत्पाटन्य चैत्र कृष्णनवम्यां निर्ग्रन्थो भूत्वा षण्मासान् प्रतिमायोगेन तस्थौ। तन्निष्क्रमणभूः प्रयागाख्यं तीर्थमभूत् । देवाः परिनिष्क्रमणकल्याणपूजां विधाय तत्केशान् क्षीरसमुद्र निक्षिप्य स्वर्लोकं ययुः । नाथः षण्मासप्रतिमायोगेनास्थात् । मासद्वयानन्तरं कच्छादयो जलं पातुं फलादिक
ही उन्होंने अकम्पनके लिए राज्यपट्ट बाँधकर 'तुम्हारा वंश उग्रवंश हो' यह कहते हुए उसे वाराणसीको दे दिया। उन्होंने 'हा-मा और धिक' की नीतिसे प्रजाको शिक्षा देते हुए तिरेसठ लाख पूर्व तक राज्य किया।
एक समय इन्द्रने भगवान्को विरक्त करनेके लिए अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष आयुवाली अपनी नीलंजसा नामकी नर्तकीको उनके आगे नृत्य करनेके लिए नियुक्त किया। वह नृत्य करते करते रंगभूमिमें ही अदृश्य हो गई। इस प्रकार उसके मरणको जानकर वे भगवान् अतिशय विरक्त हुए । उस समय लौकान्तिक देवोंने आकर उनके वैराग्यकी प्रशंसा करते हुए कहा कि हे देव ! आपने यह बहुत ही उत्तम कार्य किया है। तब ऋषभदेवने भरतके लिए अयोध्यापुर, बाहुबलीके लिए पौदनपुर, वृषभसेनके लिए पुरिमतालपुर और शेष कुमारोंके लिए काश्मीर देश दिया। फिर वे मंगलस्नानके पश्चात् मंगलभूषणोंसे अलंकृत होकर देवोंके द्वारा रची गई सुदर्शन नामकी पालकीपर आरूढ हुए । उस पालकीको यथाक्रमसे भूमिगोचरी आदि ( विद्याधर और देव) ले गये । इस प्रकार जाकर वे भगवान् देवनिर्मित मण्डपके भीतर प्रविष्ट हुए। वहाँ वे पूर्वाभिमुख स्थित होकर व छह महिनेके उपवासका नियम लेकर चैत्र कृष्णा नवमीके दिन 'ॐ नमः सिद्धेभ्यः' कहते हुए निर्ग्रन्थ ( समस्त परिग्रहसे रहित दिगम्बर ) हो गये- उन्होंने दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर ली । उनके साथ कच्छादिक अन्य चार हजार क्षत्रियोंने भी जिनदीक्षा ले ली। दीक्षा लेते समय उन्होंने पाँच मुष्टियोंसे अपने बालोंका लोच किया व प्रतिमायोगसे स्थित हो गये। इस प्रकार वे छह महीने तक प्रतिमायोगसे स्थित रहे । उनका वह दीक्षास्थान 'प्रयाग' तीर्थके नामसे प्रसिद्ध हुआ। उस समय समस्त देवोंने आकर उनके दीक्षाकल्याणककी पूजा की। पश्चात् वे सब देव उनके बालों को क्षीरसमुद्र में प्रवाहित करके स्वर्गलोकको वापिस चले गये । भगवान् तो छह महिने तक बरावर प्रतिमायोगसे स्थित रहे । किन्तु कच्छादिक राजा दो महिने के पश्चात् प्यास
१. श पटं । २. श नृत्य एव रंग । ३. श पुरिमत्तार । ४. ज मुवत फ मुद्धृत ब मुद्धृत ।
५. ब सुकुंतलान् उत्पाटय श स्वकुलंतनुस्पाटय । ६. ब -प्रतिपाठोऽयम् । श प्र गाख्यं । Jain Education International For Private & Personal Use Only
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