Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 292
________________ ६.दानफलम् २ : ६-२, ४३ ] २७१ कोटयादित्यबिम्बवद्विस्फुरायमानशरीरः'पञ्चसहस्रधनुराकाशे स्थितः। धनद आसनकम्पनेन विबुध्यागत्यैकादशभूमिकोपेतं तत्समवसरणं चकार। काश्च ता भूमिका इति उल्लेखमात्रेण कथयामि । क्षितेः पञ्चसहस्रदण्डान्तराले चतुर्दिशासु प्रत्येकं विंशतिसहस्रसोपानयुक्तां सद्वृत्तां हरिनीलशिलां चकार । तस्या उपरि सर्वरत्नमयचतुर्गोपुरयुक्तः शालोऽस्थात् । तदन्तभूमौ पञ्च-पञ्चप्रासादान्तरिता जिनालयास्तस्थुः । ततः सुवर्णमयी चतुर्गोपुरयुता वेदी स्थिता । ततोऽन्तर्जलखातिकास्थात् । ततोऽपि तथा हैमी वेदिका, ततोऽन्तर्वल्लीवनम् , ततोऽन्तस्तथा तपनीयशालस्ततोऽन्तरुपवनम्, ततोऽन्तःसुवर्णमयो वेदो,ततोऽन्तर्ध्वजास्ततोऽन्तो रजतमयशालस्ततोऽन्तःसुरद्रुमास्ततोऽन्तहैं मो वेदी ततोऽन्तर्भवनानि, ततोऽन्तर्विहायःस्फाटिकस्य शालः, ततोऽन्तर्वादशकोष्ठकाः, ततोऽन्तर्विहायःस्फाटिकवेदी, ततोऽन्तः पीठत्रयम् तत उपरि सिंहासनत्रयम् , तस्योपरि केवली तञ्चतुरङ्गुलान्तरेणास्पृशन्नुपविशति, शालं प्रति वेदी प्रति दिशासु चत्वारि गोपुराणि,तानि प्रत्येकमष्टमङ्गल नवनिधि-शततोरणेयतानि भवन्ति । बाह्यशालस्थगोपुरं सुवर्णमयं ततः षड़ रूप्यमयानि । ततो रत्नमिश्रितरूप्यमये द्वे गोपुरे । बाह्यगोपुरत्रये ज्योतिष्काः द्वयोर्यक्षाः द्वयो गाः, द्वयोः कल्पवासिनस्तिष्ठन्ति । बाह्यगोपुरापर्वतके ऊपर उदित हुए करोड़ सूर्योंके बिम्बके समान तेजपुंजको धारण करनेवाले शरीरसे संयुक्त होकर पृथिवीसे पाँच हजार धनुष ऊपर जाकर आकाशमें स्थित हुए। उस समय कुबेरका आसन कम्पित हुआ। इससे उसने भगवान्के केवलज्ञानकी उत्पत्तिको जानकर ग्यारह भूमियोंसे संयुक्त उनके समवसरणकी रचना की। वे ग्यारह भूमियाँ कौन-सी हैं, इसका यहाँ उल्लेख मात्र किया जाता है। उसने पृथिवीसे पाँच हजार धनुषके अन्तरालमें चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशामें बीस हजार सीढ़ियोंसे सहित एक गोल इन्द्रनीलमणिमय शिलाका निर्माण किया। उसके ऊपर चार गोपुरद्वारोंसे संयुक्त एक सर्वरत्नमय कोट था। उसके मध्यकी भूमिमें पाँच पाँच प्रासादोंसे व्यवहित जिनालय स्थित थे। उसके आगे चार गोपुरद्वारोंसे संयुक्त एक सुवर्णमयी वेदिका थी। उसके आगे जलसे परिपूर्ण खातिका स्थित थी। इसके आगे भी उसी प्रकारकी सुवर्णमय वेदिका, उसके आगे लतावन, उसके आगे एक वैसा ही सुवर्णमय कोट, उसके आगे उपवन, उसके आगे सुवर्णमयो वेदिका, उसके आगे ध्वजायें, उसके आगे चाँदीका कोट, उसके आगे कल्पवृक्ष, उसके आगे सुवर्णमयी वेदी, उसके आगे भवन, उसके आगे आकाशस्फटिकमणिका कोट, उसके आगे बारह कोठे और उसके आगे आकाशस्फटिकमणिमयी वेदी स्थित थी। इस वेदीके भीतर तीन पीठ व अन्तिम पीठके ऊपर तीन सिंहासन स्थित थे। सिंहासनके ऊपर चार अंगुलके अन्तरालसे उस सिंहासनको न छूते हुए केवली भगवान् विराजमान थे। प्रत्येक शाल और वेदीकी पूर्वादिक दिशाओंमें चार-चार गोपुरद्वार थे। उनमेंसे प्रत्येक गोपुरद्वार आठ मंगलद्रव्यों, नौ निधियों और सौ तोरणोंसे सहित थे। सबसे बाहिरके कोटमें स्थित गोपुरद्वार सुवर्णमय और इससे आगेके छह रजतमय थे । आगेके दो गोपुरद्वार रत्नोंसे मिश्रित चाँदीके थे। बाहिरी तीन गोपुरद्वारोंपर रक्षक स्वरूपसे ज्योतिप्क देव, आगेके दो गोपुरद्वारोंपर यक्ष, आगेके दो गोपुरद्वारोंपर नागकुमार देव और अन्तिम दो गोपुरद्वारोंपर कल्पवासी देव स्थित रहते हैं। बाह्य १. शस्फुरायमानपञ्च । २. ब इत्युक्ते उल्लेख। ३. श कथयामीक्षते । ४. ज निधिशतोरण। ५. श मिश्रत । ६. श ज्योतिकादयो जक्षाः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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