Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 284
________________ २६३ : ६-२, ४३ ] ६. दानफलम् २ स चैक एवोत्पन्नस्तत्प्रभृतियुग्मोत्पत्तिनियमाभावः । तदुक्तम् - एकमेवासृजत् पुत्र प्रसेनजितमत्र सः ।। युग्मसृष्टेरिहेवोर्ध्वमितोऽभ्युपनिनीषया' ॥२॥ इति । स च स्नानादिकृतोपदेशः तथैव शिक्षितजनः। अनन्तरं पल्याशीतिलक्षकोट येकभागे व्यतिक्रान्तेऽभून्नाभिराजो मरुदेवीकान्तः, पञ्चविंशत्युत्तरपञ्चशतचापोत्सेधः, पूर्वकोटिरायुः, सुवर्णकान्तिः तथैव शिक्षितप्रजः। तदा सर्वे कल्पपादपा गताः। नाभिराजस्य प्रासाद एवोवृतः । तदैवोत्पन्नशिशुनालनिकर्तनेन नाभिः प्रसिद्धिं गतः। स नाभिराजो मरुदेव्या सह सुखेन तस्थौ । ___ इतः सर्वार्थसिद्धौ वज्रनाभिचराहमिन्द्रस्य षण्मासायुः स्थितं यदा तदा कल्पलोके घण्टानादो ज्योतिषां सिंहनादो भवनेषु शङ्खनादो व्यन्तराणां भेरीरवोऽभूत् । सर्वेषां सुराणां हरिविष्टराणि प्रकम्पितानि मुकुटाश्च नम्रीभूताः। तदा सर्वेऽपि स्वबोधेन बुबुधिरे भरते "मरुदेवीगर्भे श्रादितीर्थकरोऽवतरिष्यतीति । चतुर्णिकायदेवैरागत्य तत्कारणेन शचीपतिस्तत्पित्रोः स्थित्यर्थं विनीताखण्डमध्यप्रदेशे अयोध्याभिधं सर्वरत्नमयं पुरमकार्षीत् । तौ द्वौ वह प्रसेनजित् भी युगलके रूपमें उत्पन्न न होकर अकेला ही उत्पन्न हुआ था। उस समयसे युगलस्वरूपमें उत्पन्न होनेका कोई नियम नहीं रहा । कहा भी है इसके आगे यहाँ युगलस्वरूप सृष्टिको नष्ट करनेकी ही इच्छासे मानो मरुदेवने प्रसेनजित् नामके एक मात्र पुत्र को ही उत्पन्न किया था ॥२॥ प्रसेनजित्ने प्रजाजनको स्नान आदिका उपदेश किया था। पूर्वके अनुसार इसने भी प्रजाजनोंको शिक्षा देनेमें 'हा-मा-धिक' इसी नीतिका उपयोग किया था। इसके पश्चात् पल्यका अस्सी लाख करोड़वाँ भाग बीत जानेपर नाभिराज नामका चौदहवाँ कुलकर उत्पन्न हुआ। इसकी पत्नीका नाम मरुदेवी था । उसके शरीरकी उँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष, कान्ति सुवर्णके समान और आयु एक पूर्वकोटि प्रमाण थी । नाभिराजने भी प्रजाको पूर्वके समान 'हा-मा-धिक' नीतके ही अनुसार शिक्षित किया था। उस समय कल्पवृक्ष सब ही नष्ट हो चुके थे, केवल नाभिराजका प्रासाद ही शेष रहा था। उस समय उत्पन्न हुए बालकोंके नालके काटनेका उपदेश करनेसे वह 'नाभि' इस नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त हुआ। वह नाभिराज मरुदेवीके साथ सुखसे स्थित था । इधर सर्वार्थसिद्धिमें जब भूतपूर्व वज्रनाभिके जीव उस अहमिन्द्रकी आयु छह मास शेष रह गई तब कल्पलोक ( स्वर्ग ) में घण्टेका शब्द, ज्योतिषी देवोंमें सिंहनाद, भवनवासियोंमें शंखका शब्द और व्यन्तर देवोंके यहाँ भेरीका शब्द हुआ। उस समय सब ही देवोंके सिंहासन कम्पित हुए और मुकुट झुक गये । इससे उन सभीने अपने अवधिज्ञानसे यह जान लिया कि भरत क्षेत्रमें मरुदेवीके गर्भ में आदि जिनेन्द्र अवतार लेनेवाले हैं। इसी कारण चारों निकायोंके देवोंके साथ आकर इन्द्रने भगवान्के माता-पिता ( मरुदेवी और नाभिराज ) के रहनेके लिये विनीता खण्डके मध्य भागमें अयोध्या नामके नगरकी रचना की, जो सर्वरत्नमय था । तत्पश्चात् १. ब वोर्द्धमितोत्पपतिनीषया। ह. पु. तो व्यपनिनीषया। २. श कल्याणपादपा । ३. ज प श प्रसाद । ४. प फ श एवोद्धृतः । ५. श नालिनि । ६. ब 'सह' नास्ति । ७. ज प श मरुद्देवी । ८. बणेन च सचीपति । ९. ब 'द्वौ' नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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