Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुण्यामवकथाकोश
[ ३–२, १६ :
विधाय सुखेनासतुः । सापि वृद्धिं गता । एकदा जनकः स्वदेशबाधा कारितरङ्गतमाख्यभिल्लस्योपरि गच्छन्नयोध्यापुरेशस्वमित्रदशरथस्य लिखितमस्थापयत् । तदर्थमवधार्य दशरथस्तस्य साहाय्यं कर्तुं गमनार्थ प्रयाणभेरीनादं कारयति स्म । तमाकर्ण्य तन्नन्दनौ रामलक्ष्मणौ तं निवार्य स्वयं जग्मतुर्जनकस्य मिमिलतुः । तत्पूर्वमेव जनकस्तेन युयुधे । तद्भ्रातरं कनकं भिल्लो बबन्ध" । तत् श्रुत्वा रामस्तेन युद्धवांस्तं बबन्ध जनकस्य भृत्यं चकार कनकममूमुचश्च तथा तेन पूर्वधृतक्षत्रियानपि । जनकेन रामप्रतापं दृष्ट्वा सीता तुभ्यं दातव्येत्युक्त्वा प्रस्थापितौ । सीतारूपावलोकनार्थमागतस्य नारदस्य विलासिनीभिर्दशार्धे दत्ते' कुपित्वा गतः कैलासे । तद्रूपं पटे लिखित्वा रथनूपुरचक्रवालपुरं गतः । उद्याने प्रभामण्डलक्रीडाभवनसमीपवृक्षशाखायामवलम्ब्य तिरोभूत्वा स्थितः । प्रभामण्डलोऽपि तद् दृष्ट्वा मूच्छितः । इन्दुगतिना श्रागत्य केनेदमानीतमित्युक्ते नारदेनोक्तं भद्रं भवतु युष्माकम् मयानीतं युवराजयोग्येयमिति सर्वं कथयित्वा गतो नारदः । 'कथं सा प्राप्यते' इति विद्याधरेशेन मन्त्रालोचने क्रियमाणे चपलगतिनोक्तं मयात्र स श्रानीयते, रखकर सुखपूर्वक स्थित हुए। वह पुत्री भी क्रमशः वृद्धिको प्राप्त हुई । एक समयकी बात है। कि तरङ्गतम नामका एक भील राजा जनकके देशमें आकर प्रजाको पीड़ित करने लगा था । तब जनक ने उसके ऊपर आक्रमण करनेके विचारसे अपने मित्र अयोध्यापुरके स्वामी राजा दशरथके पास पत्र भेजा । पत्रके अभिप्रायको जानकर राजा दशरथ जनककी सहायतार्थ वहाँ जानेको उद्यत हो गया । इसके लिए उसने प्रयाणभेरी करा दी । भेरीके शब्दको सुनकर दशरथके पुत्र राम और लक्ष्मण पिताको रोककर स्वयं गये व जनकसे मिले । उनके पहुँचने के पूर्व ही जनकने उक्त भील के साथ युद्ध प्रारम्भ कर दिया था। इस युद्धमें भीलने जनकके भाई कनकको बाँध लिया था । इस बातको सुनकर रामने भीलके साथ युद्ध करके उसे बाँध लिया और राजा जनकका सेवक बना दिया । रामने कनकको भी बन्धनमुक्त करा दिया । उसी प्रकारसे उसने पूर्व में उक्त भीलके द्वारा पकड़े गये अन्य राजाओं को भी बधनमुक्त करा दिया। रामके प्रतापको देखकर राजा जनकको बहुत सन्तोष हुआ । तब उसने 'मैं तुम्हारे साथ सीताका विवाह करूँगा' कहकर उन दोनोंको अयोध्या वापिस भेज दिया ।
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एक दिन नारद सीताके रूपको देखनेके लिए आये थे । उनको विलासिनियों (द्वारपाल स्त्रियों) ने भीतर जानेसे रोक दिया। इससे क्रुद्ध होकर वे कैलास पर्वत के ऊपर चले गये । वहाँ उन्होंने चित्रपटपर सीताके रूपको अङ्कित किया । उसको लेकर वे रथनूपुर- चक्रवालपुर में गये । वहाँ जाकर वे उद्यानके भीतर प्रभामण्डलके क्रीडागृहके समीपमें एक वृक्षकी शाखा के सहारे छुपकर स्थित हो गये । प्रभामण्डलने जैसे ही उस चित्रको देखा वैसे ही वह मूर्छित हो गया । तब इन्दुगतिने वहाँ आकर पूछा कि इस चित्रको यहाँ कौन लाया है ? यह सुनकर नारदने उसे 'तुम्हारा कल्याण हो' ऐसा आशीर्वाद देकर कहा कि इसे मैं लाया हूँ । यह बाला युवराजके योग्य है । यह सब कहकर नारद वापिस चले गये । तत्पश्चात् इन्दुगति उस कन्याकी प्राप्तिकं विषयमें विचार करने लगा । तब चपलगति नामक सेवकने कहा कि आप मुझे आज्ञा दीजिए, मैं राजा जनकको यहाँ ले आता हूँ । इस
१. फश सुखेनास्थात् । २. श लिखत । ३. ब स्यामीमिलतुः । ४ प भिल्लेन बंध फ भिल्लेन बबंध: श भिल्लेन बन्धः । ५. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श दशार्धदत्ते । ६. ब तं दृष्ट्वा ।
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