Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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: ४-४, २६ ]
४. शीलफलम् ४
न्मौनेन स्थिताः । पुनः पृष्ठे विजयनाम्ना पुरोहितेन विज्ञप्तं देव, यथा जलधिर्वज्र वेदिकोल्लङ्घनं न करोति तथा राजापि धर्मलङ्घनं न करोति, तच्च कृतवान् । देव, 'यथा राजा तथा प्रजा' इति वाक्यानुस्मरणात्प्रजापि तथा वर्तते इति सीतास्थापनं तवानुचितम् । श्रुत्वा केशवस्तं भारयितुमुत्थितः पद्मेन निवारितः ।
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सर्व पर्यालोच्य त्यजनमेव निश्चितम् । लक्ष्मणेन निवारितेनापि कृतान्तवक्त्रमाहूय आदेशो दत्तः- - वैदेही [हीं] निर्वाणक्षेत्र वन्दनार्थमागच्छेति आहूय नीत्वाटव्यां त्यक्त्वागच्छ । ततस्तेन रथमध्यारोप्य नीता नानाविधद्रुम अनेकवनेंचरसंकीर्णायामटव्यां रथादुत्तारिता । क तन्निर्वाणक्षेत्रमिति पृष्टवती सीता । तदनु रुदितं तेन । किं कारणमिति पृष्टवैती, सर्वस्मिन् कथिते मूच्छिता । तदनु चैतन्यं प्राप्योक्तं तया - वत्स, मा रोदनं कुरु, गत्वा रामाय मदीया प्रार्थना कथनीया । कथम् । यथा जनापवादभयेन निरपराधाहं त्यक्ता तथा मिथ्यादृष्टिभयाजैनधर्मो न त्यजनीय इति । स श्रात्मानं निन्दित्वा गतः इति । निरूपिते तस्मिन् मूच्छितों रामः, दुःखितो लक्ष्मणस्तथा सर्वे जना अपि । कृतान्तवक्त्रेण प्रतिबोधितेन रामेण सीता
स्थित रहे। तब रामचन्द्रके द्वारा फिरसे पूछे जानेपर विजय नामक पुरोहितने प्रार्थना की कि हे देव ! जिस प्रकार समुद्र अपनी वज्रमय वेदिकाका उल्लंघन नहीं करता है उसी प्रकार राजा भी धर्ममार्गका उल्लंघन नहीं करता है । परन्तु आपने उसका उल्लंघन किया है । यही कारण है जो देव ! 'जैसा राजा वैसी प्रजा' इस नीतिका अनुसरण करनेवाली प्रजा भी उसी प्रकारका आचरण कर रही है । इस कारण आपको सीताका अपने भवनमें रखना उचित नहीं है । विजयके इस दोषारोपणको सुनकर लक्ष्मणको बहुत क्रोध आया, इसीलिये वह उसको मारनेके लिये उठ खड़ा हुआ । परन्तु रामचन्द्रने उसे ऐसा करने से रोक दिया ।
तब रामचन्द्र ने सब कुछ सोच करके सीताके त्याग देनेका ही निश्चय किया । इसके लिये लक्ष्मणके रोकनेपर भी रामने कृतान्तवक्त्र को बुलाकर उसे यह आज्ञा दी कि तुम निर्वाणक्षेत्रोंकी वन्दना करानेके मिषसे सीताको बुलाओ और फिर उसे लेजाकर वनमें छोड़ आवो । तदनुसार कृतान्तवक्त्र उसे रथमें बैठाकर अनेक प्रकारके वृक्षों एवं वनचर (वनमें संचार करनेवाले
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आदि) जीवों व्याप्त वनमें ले गया । वहाँ जब उसने सीताको रथसे उतारा तब वह पूछने लगी कि वह निर्वाणक्षेत्र यहाँ कहाँ है ? यह सुनकर कृतान्तवक्त्र रो पड़ा । तब सीताने उसके रोनेका कारण पूछा । इसके उत्तर में उसने वह सब घटना सुना दी । उसे सुनकर सीता मूर्छित हो गई । फिर वह सचेत होनेपर बोली कि हे वत्स ! रोओ मत। तुम जाकर मेरी ओरसे रामसे यह प्रार्थना करना कि आपने जिस प्रकार लोकनिन्दाके भयसे निरपराध मुझ अबलाका परित्याग किया है उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जनोंके भयसे जैनधर्मका परित्याग न कर देना । अन्तमें कृतान्तवक्त्र अपनी अत्मनिन्दा करता हुआ अयोध्याको वापिस गया । वहाँ जाकर उसने जब रामसे सीताके वे प्रार्थनावाक्य कहे तब वे उन्हें सुनकर मूर्छित हो गये । लक्ष्मणको भी बहुत दुख हुआ । इस घटनासे सब ही जन अतिशय दुखी हुए । तत्पश्चात् कृतान्तवक्त्रके द्वारा प्रतिबोधित होकर
१. फ तथा राजापि धर्मोल्लंघनं व तथापि राजा धर्मोल्लंघनं । २. श वदेहि । ३. ब त्यक्ता । ४. फ नानाद्रुमविधअनेकवन बनानाविद्रुमवन । ५. श 'पृष्टवती' नास्ति । ६. ब 'इति' नास्ति । ७. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श जनाः कृतान्त |
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