Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 265
________________ २४४ पुण्याखव कथाकोशम् [ ६-२, ४३ : निर्नामिका चारणचरिताटवीं प्रविश्य तन्मध्यस्थमम्बरतिलकगिरिं चटितवती । तत्र पञ्चशतचारणैः स्थितं पिहितास्रवयोगिनमपश्यम् । तं नत्वापृच्छं केन पापेनाहम् ईदृग्विधा जातेति । स आह- अत्रैव पलालकूटग्रामे ग्रामकूटकदेविलवसुमत्योः सुता नागश्रीः । सा स्वक्रीडाप्रदेशनकटस्थवटतरुकोटरस्थं समाधिगुप्तमुनिं परमागमघोषं सोढुमशक्ता तन्निवारणार्थ कुथित सारमेयकलेवरं तद्वटतले चिक्षेप । मुनिना दृष्ट्ट्रोक्तं हे पुत्रि, श्रात्मनोऽनन्तं दुःखं कृतं त्वयेति । तदनु सा तदपसार्य मुनिपादयोर्लग्ना नाथ, क्षमस्व क्षमस्वेति । आयुरन्ते मृत्वा त्वं जातासि । तदुपशमपरिणामेन मनुष्यत्वं लब्धं त्वयेति निरूपिते स्वयोग्यानि व्रतानि अग्रहोषम्, कनकावलिमुक्तावलिप्रभृत्युपवासविधानमकार्षम्, श्रायुरन्ते तनुं त्यक्त्वा श्रीप्रभविमाने ललिताङ्गदेवस्य स्वयंप्रभाख्या देवी जाताहम् । मे यदा परमासायुरवस्थितं तदा ललिताङ्गस्तस्मात्प्रच्युतः कोत्पन्न इति न जाने । इह यदि तमेव वरं लभेयं तदा भोगानुपभुञ्जीय, नान्यथा इति कृतप्रतिज्ञा तद्विमानस्थे स्वस्य तस्य च रूपे पटे विलिस्य विलोकयन्ती तस्थौ । वज्रदन्तचक्री षट्खण्डधरां प्रसाध्यागत्य पुरं स्वभवनं प्रविष्टः । तदागमनदने I मेरी माताकी माता और फिर थोड़े ही वर्षोंमें माता भी कूच कर गई। तब निर्नामिका नामकी एक मैं ही शेष रही । एक समय मैं चारणचरित नामके वनमें प्रविष्ट होकर उसके बीच में स्थित अम्बरतिलक पर्वतके ऊपर चढ़कर गई । वहाँ मैंने पाँच - सौ चारण ऋषियोंके साथ विराजमान पिहितानव मुनिको देखा। उनको नमस्कार करके मैंने पूछा कि मैं किस पापके कारण इस प्रकार की हुई हूँ ? मुनि बोले- इसी देश के भीतर पलालकूट नामके गाँवमें एक देविल नामका ग्रामकूट ( गाँव का मुखिया ) रहता था । उसकी स्त्रीका नाम वसुमती था । इनके एक नागश्री नामकी पुत्री भी। एक बार नागश्रीने अपने क्रीड़ास्थानके पास में स्थित वटवृक्ष के खोते में विराजमान समधिगुप्त मुनको देखा। वे उस समय परमागमका पाठ कर रहे थे । नागश्रीको यह सहन नहीं हुआ । इसलिए उसे रोकनेके लिए उसने एक कुत्तेके सड़े-गले दुर्गन्धित शरीरको उस वटवृक्ष के नीचे डाल दिया । उसको देखकर मुनिने कहा कि हे पुत्री ! ऐसा करके तूने अपने लिए अनन्त दुःखका भाजन बना लिया है । यह सुनकर नागश्रीने वहाँ से उक्त कुत्तेके मृत शरीरको हटा दिया। तत्पश्चात् उसने मुनिके पाँवों में गिरकर इसके लिए बार-बार क्षमा प्रार्थना की। वही आयुके अन्तमें मरकर तू उत्पन्न हुई है । पीछे शान्त परिणाम हो जानेसे तूने मनुष्य पर्यायको प्राप्त कर लिया है । इस प्रकार मुनिके कहने पर मैंने (निर्नामिकाने) अपने योग्य व्रतोंको ग्रहण कर लिया । साथ ही मैंने कनकावली और मुक्तावली आदि उपवासों को भी किया । इस प्रकारसे आयुके अन्त में शरीर को छोड़कर मैं श्रीप्रभ विमानमें ललितांग देवकी स्वयंप्रभा नामकी देवी हुई थी। जब मेरी आयु छह महीने शेष रही थी तब ललितांग वहाँ से च्युत हो गया । वह कहाँपर उत्पन्न हुआ है, यह मैं नहीं जानती हूँ । इस जन्ममें यदि वही वर प्राप्त हो जाता है तो मैं भोगोंका उपभोग करूँगी, अन्यथा नहीं । इस प्रकार से प्रतिज्ञा करके वह श्रीमती श्रीप्रभ विमानमें स्थित रहनेके समय के अपने और ललितांग देवके चित्रोंको पटपर लिखकर उन्हें देखती हुई समय बिताने लगी । उधर वज्रदन्त चक्रवर्ती छह खण्ड स्वरूप पृथिवीको स्वाधीन करके अपने नगर में आया १. श तन्निवार्णार्थं । २. ब नाथ क्षमस्वेति । ३. ब- प्रतिपाठोऽयम् । शलभते । ४. ब-प्रतिपाठोयम् ।शबिर | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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