Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 271
________________ २५० पुण्यास्त्रवकथाकोशम् [ ६-२, ४३ : दिनेषु पण्डितां पुण्डरीकिण्यां प्रस्थाप्य सुखेन तस्थौ । श्रीमती वीरबाहुप्रभृतीनि पुत्रयुगलानि एकपञ्चाशल्लेभे । तेषां विवाहादिकं कृत्वा वज्रबाहुस्तिष्ठन् एकदा मेघं विलीनं विलोक्य वज्रजङ्घाय राज्यं दत्त्वा सर्वैर्नप्तृभिः पञ्चशतक्षत्रियैश्च दमधरान्तिके दीक्षितो मोक्षं गतः । इतो वज्रदन्तचक्रधरोऽप्येकदास्थाने आसितः । तस्मै कमलमुकुलं वनपालकेन दत्तम् । तत्र पुष्पमध्ये मृतषट्पदविलोकनाच्चकी वैराग्यं जगामामिततेज आदिपुत्रसहस्रेण राज्यनिवृत्तौ कृतायाममिततेजसः पुत्राय वज्रजङ्घभागिनेयाय पुण्डरीकाख्याय राज्यं दत्त्वा सहस्र पुत्रैर्विंशतिसहस्रमुकुटबद्धैः पटिसहस्र स्त्रीभिर्यशोधरभट्टारकपादमूले दीक्षितो मोक्षं गतः । अन्ये स्वयोग्यां गतिं ययुः । इतः प्रत्यन्तवासिनः पुण्डरीक बालकम गणयन्तस्तदेशस्य atri कर्तु लग्नाः । तनिवारणार्थं लक्ष्मीमती वज्रजङ्घस्य लेखार्थं विजयार्धगन्धव पुरेशयो"श्चिन्तागतिमनोगत्याख्ययोर्वियच्चरयोर्हस्ते ऽयापयत् । तमवधार्य तत्तपोग्रहणे विस्मयं कृत्वा वज्रजङ्घस्तदैव चातुरङ्गेण निर्गतः । पुण्डरीकिण्यां गच्छन् सर्प सरस्तटे विमुच्य स्थितः । तत्र चर्यामार्गेणागतौ दमवरसागर सेनाख्यौ चारणौ संस्थाप्य श्रीमतीवज्रजङङ्घौ के साथ अपने नगरको चला गया । तत्पश्चात् कुछ ही दिनोंमें वज्रबाहुने पण्डिताको पुण्डरीकणी नगरीमें वापिस भेज दिया । इस प्रकार वह सुखपूर्वक कालयापन करने लगा । समयानुसार श्रीमतीको वीरबाहु आदि इक्यावन युगल पुत्र (१०२) प्राप्त हुए । उनके विवाह आदिको करके वज्रबाहु सुखपूर्वक स्थित था । एक दिन उसे देखते-देखते नष्ट हुए मेघको देखकर भोगों से वैराग्य हो गया । तब उसने वज्रजंधके लिए राज्य देकर समस्त नातियों और पाँच सौ क्षत्रियोंके साथ दमधर मुनिके पासमें दीक्षा ग्रहण कर ली । वह कमको नष्ट करके मुक्तिको प्राप्त हुआ । इधर एक दिन वज्रदन्त चक्रवर्ती सभाभवनमें स्थित था, तब वनपालने आकर उसे कुछ विकसित एक कमलकी कलीको दिया । उसमें मरे हुए भ्रमर को देखकर वज्रदन्त चक्रवर्तीको वैराग्य हो गया । तब उसने पुत्रोंको राज्य देना चाहा । किन्तु उसके अमिततेज आदि हजार पुत्रों में - से किसी ने भी राज्य को लेना स्वीकार नहीं किया । तब उसने अमिततेजके पुत्र पुण्डरीक (अपने नाती) को, जो कि वज्रजंघका भानजा था, राज्य देकर एक हजार पुत्रों, बीस हजार मुकुटबद्धों और साठ हजार स्त्रियों के साथ यशोधर भट्टारकके चरणसांनिध्य में दीक्षा ग्रहण कर ली । अन्तमें वह मोक्षको प्राप्त हुआ । अन्य जन अपने-अपने पुण्यके योग्य गतिको प्राप्त हुए। इधर अनार्य देशवासी (अथवा समीपवर्ती ) शत्रु पुण्डरीक बालकको कुछ भी न समझकर उसके देश में उपद्रव करने लगे । उसको रोकनेके लिए लक्ष्मीमतीने विजयार्ध पर्वतस्थ गन्धर्वपुर के राजा चिन्तागति और मनोगति नामके दो विद्याधरोंके हाथमें एक लेख ( पत्र ) देकर वज्रजंघके लिये भेजा । उक्त लेखको पढ़कर जब वज्रजंघको वज्रदन्त चक्रवर्तीके दीक्षा ग्रहण कर लेनेका समाचार ज्ञात हुआ तब उसे बहुत आश्चर्य हुआ । तब वह चतुरंग सेना के साथ उसी समय निकल पड़ा । वह पुण्डरीकिणी पुरीको जाता हुआ मार्ग में सर्प सरोवर के किनारे डेरा डालकर स्थित हुआ। उस समय वहाँ दमवर और सागरसेन नामके दो चारणमुनि चर्यामार्गसे आहारके निमित्त १. फ एकन्नपंचाशल्लेभे ५१ ( पश्चात् संशोधितोऽयं पाठस्तत्र ) । २. व सर्वन्तु प्रभूत्यभिः श सर्वैर्नृश पुरेशयोचिन्ता । ६. प फ ब यापयन् । तृभिः । ३. फ आसीनस्तस्मै । ४. श कमलं मुकुलं । ५ ७. जफ सर्प प श सष्पं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362