Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 278
________________ २५७ : ६-२, ४३ ] ग्रैवेयकादागत्य मतिवरचराद्यहमिन्द्रास्तयोरेवापत्यानि बाहुमहाबाहु पीठमहापीठा अजनिषत । वज्रसेनो वज्रनाभेः स्वपदं वितीर्य सहस्रराजतनयैराम्रवने परिनिष्क्रमण कल्याणमवाप । एकदा वज्रनाभिरास्थाने स्थितो द्वाभ्यां पुरुषाभ्यां विज्ञप्तः । कथम् । ते जनकः केवली जातः, आयुधागारे चक्रमुत्पन्नमिति च । ततः केवलिपूजां विधाय साधितषट्खण्डो बभूव । स धनदेवो गृहपतिरत्नं बभूव । वज्रनाभिश्चक्री विजयादीनात्मसमानान् कृत्वा बहुकालं राज्यं कृत्वा स्वतनयवजूदत्ताय राज्यं दत्त्वा पञ्चसहस्रस्वपुत्रैर्विजयादिभिर्भ्रातृभिर्धनदेवेन च षोडशसहस्रमुकुटबद्धैः पञ्चाशत्सहस्रवनिताभिः स्वजनकान्ते दीक्षितः । षोडशभावनाभिस्तीर्थ करत्वं समुपार्ज्य श्रीप्रभावले प्रायोपगमनविधिना' तनुं विहाय सर्वार्थसिद्धिं जगाम । विजयादयोऽपि ते दशापि तत्र सुखेन तस्थुः । ० तदेदं भरत क्षेत्रं जघन्यभोगभूमिरूपेण वर्तते । किमस्यैकरूपं प्रवर्तनं नास्ति । नास्ति । कथमित्युक्ते ब्रवीमि -- अस्मिन् भरते उत्सर्पिण्यवसर्पिण्यौ कालौ वर्तेते । तयोश्य प्रत्येकं षट् कालाः स्युः । तत्रापीयमवसर्पिणी । अस्यां चाद्यः सुषमसुषमश्चतस्रः कोटी काटयः जयन्त और अपराजित नामके पुत्र उत्पन्न हुए । मतिवर आदि जो ग्रैवेयक में अहमिन्द्र हुए थे वे भी वहाँसे आकर उन्हीं दोनों के बाहु, महाबाहु, पीठ और महापीठ नामके पुत्र उत्पन्न हुए । वज्रसेन वज्रनाभिको अपना पद देकर आम्रवनमें एक हजार राजकुमारों के साथ दीक्षित होता हुआ दीक्षा कल्याणकको प्राप्त हुआ । एक दिन जब वज्रनाभि सभाभवनमें स्थित था तब दो पुरुषांने आकर क्रमसे निवेदन किया कि तुम्हारे पिताको केवलज्ञान प्राप्त हुआ है तथा आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है । इस शुभ समाचारको सुनकर वज्रनांभिने पहिले केवली की पूजा की और तलश्चात् छह खण्डस्वरूप पृथिवीको जीत कर उसे अपने स्वाधीन किया । तब वह धनदेव उस वज्रनाभि चक्रवर्तीका गृहपतिरत्न हुआ । वज्रनाभि चक्रवर्तीने उन विजय आदि भ्राताओं को अपने समान करके बहुत काल तक राज्य किया । तत्पश्चात् वह अपने पुत्र वज्रदत्तको राज्य देकर अन्य पाँच हजार पुत्रों, विजयादि भाइयों, धनदेव, सोलह हजार मुकुटबद्ध राजाओं और पचास हजार स्त्रियोंके साथ अपने पिता ( वज्रसेन तीर्थंकर) के पास दीक्षित हो गया । तत्पश्चात् उसने दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओंके द्वारा तीर्थंकर नामकर्मको बाँधकर प्रायोपगमन संन्यासको ग्रहण कर लिया । इस प्रकारसे वह शरीरको छोड़कर सर्वार्थसिद्धि विमानको प्राप्त हुआ । विजय आदि वे दश जीव भी वहीं पर ( सर्वार्थसिद्धि में ) सुख से स्थित हुए । उस समय इस भरत क्षेत्र में जघन्य भोगभूमि जैसी प्रवृत्ति चल रही थी । क्या भरत क्षेत्र के भीतर एक-सी प्रवृत्ति नहीं रहती है, ऐसा प्रश्न उपस्थित होनेपर उसका उत्तर यहाँ 'नहीं' के रूपमें देकर उसका स्पष्टीकरण इस प्रकारसे किया गया है - इस भरत क्षेत्र में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी ये दो काल प्रवर्तमान रहते हैं । उनमें से एक-एकके छह विभाग हैं । उनमें भी इस समय यह अवसर्पिणी काल चालू है । इस अवसर्पिगीके प्रथम विभागका नाम सुखमसुखमा है । ६. दानफलम् २ १. ब वज्रनाभये । २. ज प तनये: रंभावने फ तनयैराम्रवनो श तनयैः रंभावनो । ३. व खंडोभूत् । ४. ब मात्मसमान् । ५. व विजयादिभ्रातभि । ६. श षोडशमुकुट । ७. ब प्रायोपगमरणविधिना । दहं भरतं । ९. बवत । १०. प प्रवर्तनं नास्ति कथं । ११. ज प श सुखमसुखमश्चतस्रः को ब सुखमसुखमः कालश्चव । रिकोडा कोडिसागरतस्रः को । ० ८. For Private & Personal Use Only Jain Education Internationa www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362