Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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: ५–५, ३८ ]
५. उपवासफलम् ५.
२२१
सुस्थो भूत्वा काष्ठकूटं वस्त्रादिकं याचितवान् । तदा तेन स्ववनिता पृष्टास्याद्य किं भोक्तुं दत्तम् । तया कथिते स्वरूपे तदनु स तां किमस्यैवंविधो ग्रासो दत्त इति दण्डैदण्डैर्जघान । नन्दिमित्रो मन्निमित्तमिमां ताडितवानयमित्यस्य गृहे स्थातुमनुचितमिति निर्जगाम । महाकाष्ठभारमानीय तद्विक्रयंस्तस्थौ । लघूनप्यन्यभारान् विक्रीत्वा [ क्रीत्वा ] जना गच्छन्ति, तद्भारवार्तामपि न कुर्वन्ति । मध्याह्न बुभुक्षाक्रान्त उद्विग्नो यावदास्ते तावद्विनयगुप्तो मुनिर्मासोपवासी चर्यार्थ प्रविष्टस्तं विलोक्यायं मत्तो वस्त्रादिहीनः क यातीत्यवलोकयामीति भारं तत्रैव निक्षिप्यं तत्पृष्ठे लग्नः । स मुनी राज्ञा स्थापितः, पादप्रक्षालनादिकं कृत्वायं कश्चित् श्रावक इति दास्या तत्पादौ प्रक्षाल्य दिव्यभोजनं दत्तम् । मुनेनैरन्तर्ये सति पञ्चाश्चर्याणि जातानि विलोक्य नन्दिमित्रोऽमन्यतायं देवोऽहमप्येतद्विधो भवामीति तेन सार्धं गुहायां गतः, तत्रोक्तवान्- हे नाथ, मां त्वत्सदृशं कुरु । तं भव्यमल्पायुषं ज्ञात्वा मुनिस्तं दीक्षां दत्तवान् । उपवासं चक्रे पञ्चनमस्कारान् पठितवांश्च । पारणा हेऽ हम स्थापयामीति श्रावकाणां संभ्रमं वीक्ष्य कपोतलेश्या परिणतः । प्रातः कीदृशः क्षोभो
अन्तमें पान भी दिया, तब उसने सन्तुष्ट होकर काष्ठकूटसे वस्त्र आदि माँगे । उस समय काष्ठकूटने अपनी स्त्री से पूछा कि आज इसे तूने खानेके लिए क्या दिया है ? इसके उत्तर में उसने यथार्थ बात कह दी। इससे क्रोधित होकर काष्ठकूटने यह कहते हुए कि तूने उसे ऐसा उत्तम भोजन क्यों दिया है, उसे डण्डोंसे खूब मारा । यह देखकर नन्दिमित्रने विचार किया कि काष्ठकूटने इसे मेरे कारण मारा है, इसलिए अब इसके घरमें रहना योग्य नहीं है। बस यही सोचकर वह उसके घर से निकल गया । फिर वह एक लकड़ियोंके भारी गट्टेको लाया और उसे बेचने के लिए बैठ गया । ग्राहकजन छोटे भी गट्ठों को खरीदकर चले जाते थे, परन्तु इसके गट्ठेके विषय में कोई बात भी नहीं करता था । इस तरह दोपहर हो गये। तब वह भूख से व्याकुल हो उठा । इतने में वहाँ से विनय - गुप्त नाम के एक मासोपवासी मुनि चर्याके लिए निकले। उन्हें देखकर उसने विचार किया कि मेरे पास तो पहिननेके लिए फटा-पुराना वस्त्र भी है, परन्तु इसके पास तो वह भी नहीं है । देखूँ भला यह किधर जाता है । यह सोचता हुआ वह लकड़ियोंके गट्टे को वहीं पर छोड़कर उनके पीछे लग गया । उन मुनिराजका पडिगाहन राजाने करके उन्हें नवधा भक्तिपूर्वक आहार दिया । नन्दिमित्रको देखकर उसने समझा कि यह कोई श्रावक है । इसलिए उसने दासीके द्वारा उसके पाँव धुलवाकर उसे भी दिव्य भोजन दिया। मुनिका निरन्तराय आहार हो जानेपर राजाके यहाँ पञ्चाश्चर्य हुए | उनको देखकर नन्दिमित्रने समझा कि यह कोई देव है । इसके साथ रहने से मैं भी इसके समान हो जाऊँगा । यही सोचता हुआ वह उनके साथ गुफामें चला गया । वहाँ पहुँचकर उसने उनसे प्रार्थना की कि हे स्वामिन्! मुझे भी आप अपने समान बना लीजिए। तब भव्य और अल्पायु जानकर विनयगुप्त मुनिने उसे दीक्षा दे दी । उस दिन नन्दिमित्र उपवासको ग्रहण करके पंचनमस्कार मंत्रका पाठ करता रहा । पारणाके दिन 'मैं उन्हें आहार दूँगा, मैं उन्हें आहार दूँगा' इस प्रकार श्रावकों के बीचमें विवाद आरम्भ हो गया । उसे देखकर नन्दिमित्रके परिणाम कापोत
१. बक्रस्थंडिले तस्थौ । २. प श भारा । ३. व निधाय । ४. ब मुनिस्तं दीक्षांचक्रे । ५. ब पाठितवांश्च । ६. फ पारणाह्नेहं ।
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