Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ५-५, ३८
वचनाज्जगाम । तदा तश्चित्तपरीक्षणार्थ यक्षी स्वयमदृशीभूत्वा सुवर्णवलयालंकृत हस्तगृहीतaghi सूपसर्पिरादिमिश्रं शाल्योदनं दर्शयति स्म । मुनिरस्य ग्रहणमयुक्तमित्यलाभे गतः । गुरोरन्ते प्रत्याख्यानं गृहीत्वा स्वरूपं निरूपितवान् | गुरुस्तत्पुण्यमाहात्म्यं विबुध्य भद्रं कृतम् इत्युवाच । अपरस्मिन् दिनेऽन्यत्र ययौ । तत्र रसवतीभाण्डानि हेममयं भाजनमुदककलशादिकं ददर्श । अलाभेनागतो गुरोः स्वरूपं निरूपितवान् । स च भद्रं भद्रमिति वभाण । अन्यस्मिन् दिनेऽन्यत्र ययौ । तत्रैकैव स्त्री स्थापयति स्म । तदा त्वमेकाहमेक इति जनापवादभयेन स्थातुमनुचितमिति भणित्वालाभे निर्जगाम । अन्येद्युरन्यत्राट । तत्र तत्कृतं नगरमपश्यत् । तत्रैकस्मिन् गृहे चर्या कृत्वागतो गुरोः स्वरूपं कथितवान् । स बभाण समीचीनं कृतम् । एवं स यथाभिलाषं तत्र चर्या कृत्वागत्य स्वामिनः शुश्रूषां कुर्वन् वसति स्म । स्वामी कतिपयदिनैर्दिवं गतः । तच्छरीरमुच्चैः प्रदेशे शिलायाम् उपरि निधाय तत्पादौ गुहाभित्तौ विलिख्याराधयन् वसति स्म । विशाखाचार्यादयश्चोलदेशे सुखेन तस्थुः । इतः
है तो गुरुके वचनका उलंघन कभी नहीं करना चाहिए, यह सोचकर संप्रति चन्द्रगुप्त मुनि उनकी आज्ञानुसार चर्या के लिए चले गये । उस समय उनके चित्तकी परीक्षा करनेके लिए एक यक्षीने स्वयं अदृश्य रहकर सुवर्णमय कड़ेसे विभूषित हाथमें कलछी ली और उसे दाल एवं घी आदि से संयुक्त शालि धानका भात दिखलाया । उसको देखकर मुनिने विचार किया कि इस प्रकारका आहार लेना योग्य नहीं है । इस प्रकार वे बिना आहार लिए ही वापिस चले गये । इस प्रकार वापिस जाकर उन्होंने गुरुके पास में उपवासको ग्रहण करते हुए उनसे उपर्युक्त घटना कह दी । गुरु चन्द्रगुप्तके पुण्य माहात्म्यको जानकर उनसे कहा कि तुमने यह योग्य ही किया है। दूसरे दिन चन्द्रगुप्त आहारके निमित्त दूसरी ओर गये। उधर उन्हें रसोई, बर्तन, सुवर्णमय थाली और पानीका घड़ा आदि दिखा । [ परन्तु पडिगाहन करनेवाला वहाँ कोई नहीं था ।] इसलिए वे दूसरे दिन भी बिना आहार ग्रहण ही वापिस आ गये । आजकी घटना भी उन्होंने गुरुसे कह दी । इसपर गुरुने कहा कि बहुत अच्छा किया । तत्पश्चात् तीसरे दिन वे किसी दूसरी ओर गये । वहाँ उनका पडिगाहन केवल एक ही स्त्रीने किया । तत्र चन्द्रगुप्त मुनिने उससे कहा कि तुम अकेली हो और इधर मैं भी अकेला हूँ, ऐसी अपस्था में हम दोनोंकी ही निन्दा हो सकती है । इसलिए यहाँ रहना योग्य नहीं है | यह कहकर बिना आहार किये ही वे वापिस चले गये । चौथे दिन वे और दूसरे स्थान में गये । वहाँ उन्होंने उस यक्षीके द्वारा निर्मित नगरको देखा। वहाँ एक घरपर वे आहार करके आ गये । आज निरन्तराय भोजन प्राप्त हो जानेका भी वृत्तान्त उन्होंने गुरुसे कह दिया । गुरुने भी कह दिया कि अच्छा किया। इस प्रकार वे इच्छानुसार कभी उपवास रखते और कभी वहाँ आहार ग्रहण करके आ जाते। इस प्रकार संप्रति चन्द्रगुप्त मुनि गुरुदेवकी सेवा करते हुए वहाँ स्थित रहे । कुछ ही दिनों में भद्रबाहु स्वामी स्वर्गवासी हो गये । चन्द्रगुप्त मुनिने उनके निर्जीव शरीरको किसी ऊँचे स्थानमें एक शिला के ऊपर रख दिया । फिर वे गुफाकी भित्तिके ऊपर गुरुके चरणों को लिखकर उनकी आराधना करते हुए वहाँ स्थित रहे। उधर विशाखाचार्य आदि चोलदेशमें
१. ब ंमदर्शी भूत्वा । २. फ चट्टकेन ब चट्टकेन । ३. ब सूपसप्यादि श सूर्पसर्पि- रादि । ४. फ मित्यलाभेन । ५. व गुरुः । ६. व अन्यत्रेयाय । श 'स' नास्ति, व प्रतौ त्वस्ति ।
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