Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुण्यालवकथाकोशम्
[ ५-५, ३८
विवेश । तेषां तयोक्तं भवादृशामत्र वर्तनं नास्तीति निर्ग्रन्यैः भवितव्यम् । ततस्ते स्वमतावलम्बनेनैव जाल्पसंघाभिधानेन निर्ग्रन्थाजनिषतेति (?) संप्रति चन्द्रगुप्तोऽतिविशिष्तपो विधाय संन्यासेन दिवं जगाम । एवं कापोतलेश्यापरिणामेन कृतोपवासो नदिमित्रः स्वर्गादिसुखेोऽभूद्य विशुद्धया करोति स किं न स्यादिति ॥५॥
[ ३६ ]
इह हि नृपतिपुत्री प्रोषधाज्जातपुण्यानरसुरगतिभोगान् दीर्घकालं सिषेवे । अजनि तदनु विष्णोर्जाम्बवत्याह्वया स्त्री उपवसनमतोऽहं तत्करोमि विशुद्धया ॥ ६॥
अस्य कथा - द्वारवत्यां राजानौ बलनारायणौ । तावेकदोर्जयन्ते स्थितं श्रीनेमिनाथं वन्दितुमीयतुस्तं पूजयित्वा स्तुत्वा च स्वकोष्ठे उपविष्टौ । तत्र हरेर्देवी जाम्बवती वरदत्तगणधरं नत्वा पप्रच्छ स्वातीतभवान् । स आह- अत्रैव जम्बूद्वीपेऽपरविदेहे पुष्कलावतीविषये वीतशोकपुरे वैश्यदेविलदेवलमत्योर्यशस्विनी सुता जाता प्रधानपुत्र सुमित्राय दत्ता । मृते तस्मिन् दुःखिता जिनदेवेन सम्यक्त्वं ग्राहिता । त्यक्तसम्यक्त्वा मृत्वा आनन्द
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राजा उनकी अवज्ञा करके नगर में वापिस चला गया । तब जक्खलदेवीने उनसे कहा कि आप जैसों का इस वेषमें यहाँ निर्वाह होना सम्भव नहीं है । अतएव आप दिगम्बर हो जावें । ऐसा कहने पर वे अपने अभिप्रायको न छोड़ते हुए दिगम्बर हो गये । इससे उनका संघ जाल्पसंघ नामसे प्रसिद्ध हुआ । संप्रति चन्द्रगुप्त घोर तपश्चरण करके संन्यासके साथ मरणको प्राप्त हुआ और स्वर्ग गया । इस प्रकार कापोतलेश्यारूप परिणामसे उपवासको करके जब वह नन्दिमित्र स्वर्गादिके सुखका भोक्ता हुआ है तब जो भव्य जीव विशुद्ध परिणामोंसे उस उपवासको करेगा वह क्या वैसे सुखका भोक्ता नहीं होगा ? अवश्य होगा ॥ ५ ॥
यहाँ बन्धुषेण राजाकी पुत्री बन्धुयशा उपवास करके उससे उत्पन्न हुए पुण्यके प्रभाव से चिरकाल तक मनुष्य और देवगतिके भोगोंको भोगकर अन्तमें कृष्णकी जाम्बवती नामकी पत्नी हुई है । इसलिए मैं मन, वचन और कायकी शुद्धिपूर्वक उस उपवासको कहता हूँ || ६ ||
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इसकी कथा इस प्रकार है- द्वारवती नगरी में बलदेव और कृष्ण ये दोनों भाई राज्य करते थे । एक समय वे दोनों ऊर्जयन्त पर्वतके ऊपर स्थित श्री नेमिनाथ जिनेन्द्रकी वंदना करने के लिए गये । उनकी वंदना और स्तुति करके वे दोनों अपने (मनुष्य के) कोठे में बैठ गये । वहाँपर कृष्णकी पत्नी जाम्बवतीने वरदत्त नामक गणधरको नमस्कार करके उनसे अपने पूर्व भवों को पूछा । गणधर बोले- इसी जम्बूद्वीप के भीतर अपर विदेह में पुष्कलावती देशस्थ वीतशोकपुर में एक देविल नामका वैश्य रहता था । उसकी पत्नीका नाम देवलमती था । उनके एक यशस्विनी नामकी पुत्री उत्पन्न हुई । उसका विवाह मंत्रीके पुत्र सुमित्र के साथ कर दिया गया । परन्तु वह मर गया था । इसलिए वह बहुत दु:खी हुई । तब जिनदेवने सदुपदेश देकर उसके लिए सम्यक्त्व ग्रहण करा दिया ।
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१. ज प श संप्रतिचन्द्रोतिविशिष्टं व संप्रतिचन्द्रोतिविशेषं । २. व वलगोविंदो । ३. व स्थितं तं श्रीं । ४. ज प श जंबवती । ५. ब द्वीपपूर्वविदेहे । ६. व देविदेवत्यो । ७. ब मृता ।
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