Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 257
________________ २३६ पुण्यात्र कथाकोश [ ६–१, ४२ : रूपवांश्च । स तत्पुत्रवेदाध्ययनकाले सर्ववेदादिकं शिशिक्षे । तच्छास्त्रपरिज्ञानं ज्ञात्वा धरणीजडेन निर्धाटितः । स यज्ञोपवीतादियुतो भूत्वा रत्नसंचयं पुरमागतः । सात्यकस्तं गुणिनं रूपाधिकं च दृष्ट्वा तस्मै सत्यभामामदत्त । सा तं ब्राह्मणानुष्ठाने शिथिलमति कामिनं च विलोक्य तत्कुले संदिग्धचिन्ता वर्तते । कतिपयदिनैर्धरणीजडस्तस्य समृद्धि श्रुत्वा द्रव्येच्छया तदन्तमागतस्तेन मत्तात इति सर्वत्र प्रभावितः । स तद्गृहे सुखेन स्थितः । एकदा भर्तरि बहिर्गते तया द्रव्यं पुरो व्यवस्थाप्य पृष्टः श्वशुरः कपिलस्य का जातिरिति । तेन यथावत्कथिते सा राजभवनं गत्वा राज्ञस्तदकथयत् । राजा तत्स्वरूपं विचार्य गर्दभारोहणादिकं कारयित्वा तं स्वदेशान्निर्धाटितवान् । सा राजभवने एव तिष्ठति स्म । एकदा राजभवनमनन्तगत्यरिंजयभट्टारकौ चारणौ चर्यार्थमागतौ, राज्ञा स्था-स्थापितावतिविशुद्ध दत्तम् । तत्र देव्यौ ब्राह्मणी चानुमोदं चक्रुः । एकदानन्तमतीविलासिनी निमित्तमिन्द्रोपेन्द्रौ योद्धुं लग्नौ पित्रा निवारितावपि युद्धं न त्यक्तवन्तौ । तदा विषपुष्पमाघ्राय राजा देव्यौ ब्राह्मणी च मनुः । मुनिदत्ता हारफलेनानुमोदकलेन च तत्र नृपो धातकीखण्डपूर्वमन्दरस्योत्तमभोगभूमावार्यो जशे । सिंहनन्दिता सुन्दर था। ब्राह्मग जब अपने पुत्रोंको वेद आदि पढ़ाता तब वह भी उसे सुना करता था । इससे वह वेदादिका अच्छा ज्ञाता हो गया था । उसके शास्त्र ज्ञानको देखकर धरणीजड़ने उसे अपने घर से निकाल दिया था । तब वह यज्ञोपवीत आदिको धारण करके रत्नसंचयपुरमें आया । सात्यकने उसे गुणी और सुन्दर देखकर उसके साथ अपनी पुत्री सत्यभामाका विवाह कर दिया । वह ब्राह्मणके योग्य क्रियाकाण्ड में शिथिल होकर अतिशय कामी था । उसकी ऐसी प्रवृत्तिको देखकर सत्यभामाके मनमें उसके कुलके विषय में सन्देह उत्पन्न हुआ । कुछ दिनोंके पश्चात् धरणीजड़ उसकी वृद्धिको सुनकर धनकी इच्छा से उसके पास आया । उसने 'यह मेरा पिता है' कहकर सब लोगों में प्रसिद्ध कर दिया । इस प्रकार धरणीजड़ उसके घरपर सुखसे रहने लगा । एक दिन जब पति बाहर गया था तब सत्यभामाने ससुर धरणीजड़के सामने धनको रखकर उससे पूछा कि कपिलकी जाति कौनसी है ? इसके उत्तर में उसने यथार्थ वृत्तान्त कह दिया । तब सत्यभामाने राजभवनमें जाकर उसके वृत्तान्तको राजासे कहा । राजाने इस घटनापर विचार करके कपिलको गधे के ऊपर सवार कराया और नगर में घुमाते हुए देशसे निकाल दिया । सत्यभामा राजभवनमें ही रही । एक दिन अनन्तगति और अरिंजय नामके दो चारणमुनि चर्याके निमित्तसे राजभवनमें आये । राजाने पड़िगाहन करके उनको अतिशय विशुद्धिपूर्वक आहारदान दिया। उसकी दोनों रानियों और उस ब्राह्मणी ( सत्यभामा ) ने इस आहारदानकी अनुमोदना की । एक समय इन्द्र और उपेन्द्र नामके दोनों राजपुत्र अनन्तमती वेश्या के निमित्त से परस्पर युद्ध करने के लिए उद्यत हो गये । राजाने उन्हें इसके लिए बहुत रोका । परन्तु दोनोंने युद्ध के विचारको नहीं छोड़ा। तब राजा, दोनों रानियों और उस ब्राह्मणी सत्यभामाने विषपुष्पको सूँघकर अपने प्राणोंका परित्याग कर दिया । मुनियोंके लिये दिये गये उस दानके प्रभावसे वह राजा धातकी - खण्डद्वीप के पूर्व मेरु सम्बन्धी उत्तम भोगभूमिमें आर्य हुआ । उक्त दानकी अनुमोदना करने से सिंह १. ज प श शिशिष्ये । २ ज तच्छास्त्रं परिज्ञानं ज्ञात्वा श तच्छास्त्रपरिज्ञात्वा । ३. फ रूपादिकं । ४. व शिथिलमति ं । ५. श भवनं गत्यं । ६. श 'वितिविशुद्धया । ७. ब- प्रतिपाठोऽयम् । शद्धया तद्दानं । ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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