Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
: ५-२, ३५ ]
५. उपवासफलम् २
१८६
जलाशया यावदधोऽवतरति तावत् कियदन्तुरे भूमेरन्तः स्थितं पुरमपश्यत्तच्चोद्वसेम् । तदीशानकोणे स्थितं जिनालयं वीक्ष्यातिहृष्टस्तद्द्द्वारे तस्थौ जिनं तुष्टाव । तदा तत्कपाटः स्वयमेवोदघाटितः । तत्र पञ्चाशदधिकशतचापच्छ्रिति चन्द्रकान्तरत्नमयीं प्रतिमामभीच्य प्रहसिताननोऽपूर्व चैत्यालयदर्शनक्रियां चकार । तन्मत्तवारणे उपविश्य यावदास्ते तावदन्यकथान्तरमासीत् ।
तत्कथमित्युक्तेऽत्रैव द्वीपे पूर्वविदेहे पुष्कलावतीविषये पुण्डरीकिणीपुराद्वहिः स्थितयशोधरतीर्थ कृत्समवसरणेऽच्युतेन्द्रेण विद्युत्प्रभेण गणधरदेवः पृष्टः पूर्वभवस्य मम मित्रं धनमित्रः क्वोत्पन्नः कथं तिष्ठतीति । गणभृदवादीदत्रैव भरते हस्तिनापुरे वैश्यधनपति कमलश्रियोः पुत्रो भविष्यदत्तोऽजनि । संप्रति तिलकद्वीपस्थहरिपुरे चन्द्रप्रभजिनालये तिष्ठति । स च तत्पत्यरिंजयचन्द्राननयोः पुत्र भविष्यानुरूपां तत्पतिपूर्वभवविरोधि कौशिकचरराक्षसेन तत्रत्यराजादिजनमारणे रक्षितां परिणीय द्वादशवर्षे बन्धूनां' मिलिष्यतीति । ततोऽच्युतेन्द्रोऽमितवेगदेवं तत्र प्रस्थापयामास भविष्यदत्तभविष्यानुरूपयोर्यथा परस्परं दर्शनं
वृक्षके नीचे उत्तरोत्तर नीचे गई हुई सीढ़ियोंकी एक पंक्ति दिखी । वह जब जलप्राप्तिकी आशा से नीचे उतरा तो उसे कुछ दूर जानेपर भूमिके भीतर स्थित एक पुर दिखा जो कि वीरान था । उसके ईशान कोण में स्थित जिनालयको देखकर उसे अत्यन्त हर्ष हुआ। वह उसके द्वारपर स्थित होकर जिनेन्द्रकी स्तुति करने लगा । उस समय उसका बन्द द्वार स्वयं ही खुल गया । उसके भीतर डेढ़ सौ धनुष प्रमाण ऊँची चन्द्रकान्तमणिमय प्रतिमाको देखकर उसका मुखकमल विकसित हो उठा। तब उसने अपूर्व चैत्यालयका विधिपूर्वक दर्शन किया । फिर वह उसके छज्जेपर जाकर बैठ गया । इस प्रसंग में यहाँ एक दूसरी कथा प्राप्त होती है जो इस प्रकार है
इसी जम्बूद्वीप के पूर्वविदेह में पुष्कलावती देशके भीतर पुण्डरीकिणी पुरी है । उसके बाहिर यशोधर तीर्थंकरका समवसरण स्थित था । वहाँ विद्युत्प्रभ अच्युतेन्द्र ने गणधर देवसे पूछा कि मेरा पूर्वजन्मका मित्र धनमित्र कहाँ उत्पन्न हुआ है और किस प्रकारसे है ? गणधर बोलेइसी जम्बूद्वीप भीतर भरत क्षेत्र में एक हस्तिनापुर नामका नगर है । वहाँ वैश्य धनपति और कमलश्री दम्पति रहते हैं । वह इन दोनोंके भविष्यदत्त नामका पुत्र उत्पन्न हुआ है । इस समय वह तिलक द्वीपके भीतर स्थित हरिपुरमें चन्द्रप्रभ जिनालय में स्थित है । उक्त हरिपुरके राजाका नाम अरिंजय और रानीका नाम चन्द्रानना था। इनके एक भविष्यानुरूपा नामकी पुत्री थी । एक कौशिक नामका पूर्व भवका तापस उस नगरके स्वामीका शत्रु था जो मरकर राक्षस हुआ था । उसने वहाँ के राजा आदि सब जनोंको मार डाला था । एक मात्र भविष्यानुरूपा ही ऐसी थी जिसकी कि उसने रक्षा की थी । भविष्यदत्त इस राजपुत्रीके साथ विवाह करके बारह वर्षों में कुटुम्बी जनोंसे मिलेगा । गणधर के इस उत्तरको सुनकर उस अच्युतेन्द्रने वहाँ अमितवेग नामक देवको भेजते हुए उसे यह आदेश दिया कि भविष्यदत्त और भविष्यानुरूपाका जिस प्रकार से सम्मिलन हो सके, ऐसी व्यवस्था करो । तदनुसार उक्त देवने वहाँ जाकर देखा तो वह भविष्य -
१. श तच्चोद्धसम् । २. प वीक्ष्य अतिहृष्टस्सन् द्वारे श वीक्षस्ततः द्वारे । ३. श वोद्घटितः । ४. जपफशचापोछति । ५. ब मोक्ष्य । ६. व श विरोध । ७. प रक्षताम् फ रक्षिता तां । ८ प ब शवर्षे बन्धूनाम् । ९. ब मेलयिष्यतीति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org