Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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५. उपवासफलम् २
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: ५-२, ३५ ] पञ्चमीविधानमादाय तिष्ठन्ती' स्थिता । इतो द्वादशवर्षानन्तरं भविष्यानुरूपा तमपृच्छद्यथा मम कोऽपि नास्ति तथा तवापि किं कोऽपि नास्ति । तेनाभाणि हस्तिनापुरे पित्रादयः सन्ति । तत्र गमनोपायः क इत्युक्ते भविष्यदत्तः सारीभूतरत्नराशि समुद्रतटे चकार । ध्वजमुख्य दिवा तया सह तत्र तिष्ठति । कतिपयदिनैः स बन्धुदत्तो चौरापहृतद्रव्यो वहित्राणि पाषाणै: पूरयित्वा व्याघुटितस्तेन पथा गच्छन् ध्वजोपेतं रत्नपुञ्जमावीदयं तत्रागतो भविष्यदत्तं ददर्श । मायया महाशोकं चकार ववाद च 'दूरं गतेषु वहित्रेषु त्वामपश्यन् मूच्छितोऽतिदुःखी जातो वहित्राणि वायुवशेन न व्याघुटन्ते । ततो गतोऽहं तत्फलं प्राप्तः' इति । ततस्तं संबोध्य सर्वान् पुरमवीविशत् । भोजनादिना तेषां पथश्रमेऽपहारे सति रत्नैर्वहित्राणि विभृत्य भविष्यानुरूपां वहित्रमारोप्य स्वयं यदारोहति तदा तयोक्तं हे नाथ, गरुडोद्गारमुद्रिकां रत्नप्रतिमां च व्यस्मरमिति । ततो भविष्यदत्तस्तदर्थे [ थं ] व्याघुटे । तदा बन्धुदत्तोऽहो यद्वहित्रे यद् द्रव्यमस्ति तत्तस्यैव ममानया कन्ययानेन द्रव्येण च पूर्यते इति भणित्वा तानि प्रेरयामास । तदा सा मूच्छितातिबहुशोकं चक्रे । तस्मिन्नवसरे बन्धुदत्तेनानेकप्रकारविकारैरुपसर्गे क्रियमाणे सात्मनः क्रियां क्रियमाणामवलोक्य' भविष्यानुरूपा त्रस्ता दुखको नष्ट करनेके लिए सुत्रता आर्यिकाके पास जाकर पञ्चमीव्रतके विधानको ग्रहण कर लिया और तब वह इस व्रत का पालन करती हुई स्थित रही । इधर बारह वर्षोंके बीतने पर भविष्यानुरूपाने भविष्यदत्तसे पूछा कि जिस प्रकार मेरे कोई बन्धुजन नहीं है उसी प्रकार आपके भी क्या कोई नहीं है ? इसपर भविष्यदत्तने कहा कि हस्तिनापुर में मेरे पिता आदि कुटुम्बी जन हैं । तब भविष्यदत्ता बोली कि वहाँ जानेका उपाय क्या है ? इसपर भविष्यदत्तने समुद्र के किनारेपर श्रेष्ठ रत्नों की राशि की । फिर वह ध्वजाको फहराकर दिनमें भविष्यानुरूपा के साथ वहीं रहने लगा । कुछ ही दिनों में वह बन्धुदत्त लौटकर वहाँ आया । उसके सब धनको मार्ग में चोरोंने लूट लिया था । अतएव वह नावों को पत्थरोंसे भर कर लाया । मार्ग में जाते हुए उसने ध्वजाके साथ रत्नसमूहको देखा । उसे देखकर वह यहाँ आया तो देखता है कि भविष्यदत्त बैठा हुआ है । तब वह भविष्यदत्त के सामने पसे परिपूर्ण महान् शोकको प्रदर्शित करते हुए बोला कि जब नौकाएँ बहुत दूर चली गईं तब वहाँ तुमको न देखकर मुझे मूर्छा आ गई। उस समय मुझे अतिशय दुःख हुआ । मैंने नौकाओंको वापिस ले आनेका प्रयत्न किया, परन्तु प्रतिकूल वायुके कारण वे वापिस नहीं आ सकीं । इस प्रकार मुझे बाध्य होकर आगे जाना पड़ा। उसका फल भी मुझे प्राप्त हो चुका है - कमाया हुआ सब धन चोरों द्वारा लूट लिया गया गया है । यह सुनकर भविष्यदत्त बन्धुदत्त को समझा बुझाकर उन सबको नगरके भीतर ले गया । वहाँ उसने भोजनादिके द्वारा उन सबके मार्गश्रमको दूर किया । फिर उसने नावोंको उन रत्नोंसे भरकर भविष्यानुरूपाको नावके ऊपर बैठाया । तत्पश्चात् जब वह स्वयं भी नावके ऊपर चढ़ने लगा तब भविष्यानुरूपाने कहा कि हे नाथ ! मैं गरुडोद्गार अंगूठी और रत्नमय प्रतिमाको भूल आई हूँ । तत्र भविष्यदत्त उनको लेनेके लिए वापिस गया । इधर बन्धुदत्तने 'अहो, जिसकी नावमें जो द्रव्य हैं वह उसका ही है' मेरे लिए तो यह कन्या और यह द्रव्य पर्याप्त हैं; यह कहते हुए उन नावोंको छुड़वा दिया ।
१. पशमादाय यावत्तिष्ठन्ती । २ ज पुंजमभवीष्य, प ब पुंजमवीक्ष्य, श पुंजमवीक्षत । ३. ब श्रममपहारे [ श्रमेऽपहृते ] । ४. ज व व्याजघुटे । ५. ज प कन्यया तेन । ६. श प्रकारविकारविकारै । ७. ज सर्गे क्रियमाणेमवलोक्य प रुपसर्गे क्रियमाणमवलोक्य |
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