Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 217
________________ पुण्यrader कोशम् [ ५-२, ३५ : एकदा तत्पुरोद्यानं विपुलमतिविपुलबुद्धी भट्टारकौ समागतौ । वनपालकाद्विबुध्य भूपालादयो वन्दितुमादुः । अभिवन्द्य धर्मश्रवणानन्तरं भविष्यदत्तोऽपृच्छत् स्व-भविष्यानुरूपयोः पुण्यातिशयहेतुं तथा परस्परं स्नेहस्य चाच्युतेन्द्रस्य स्वस्योपरि स्नेहस्य चारिंजयस्य राजस्य (?) राक्षसस्य वैरहेतुं स्वस्य भविष्यानुरूपाया उपरि मोहस्य कमलयो दौर्भाग्य हेतुम् । विपुलमतिः कथयति स्म - श्रत्रैव द्वीपे ऐरावतार्थखण्डे सुरपुरे राजा वायुकुमारो देवी लक्ष्मीमती मन्त्री वज्रसेनो भार्या श्रीः । तद्दुहिता कीर्ति सेना वज्रसेनेन स्वभागिनेयाय दत्ता । स तां नेच्छतीति स्वपितुर्गृहे श्रीपञ्चमीविधानं कुर्वती तस्थौ । तत्रैव वैश्योऽतीवेश्वरो धनदत्तो भार्या नन्दिभद्रा पुत्रो नन्दिमित्रः । ते धनदत्तादयो मिथ्यादृष्टयोऽपरजैनवैश्यधनमित्रेण संबोध्याणुव्रतानि ग्राहिताः । एकदा ग्रीष्मेऽनेकोपवासपारणायां घर्मजलेनार्द्रीभूतसर्वाङ्गं समाधिगुप्तमुनि नन्दिभद्रा विलोक्य जुगुप्सां चक्रे । तत्र दुर्भगनामकर्मार्जति स्म । स नन्दिमित्रः समाधिगुप्तमुनिवरान्ते तपसाच्युतेन्द्रोऽजनि । कीर्तिसेना श्रीपञ्चम्या उद्यापनं कृत्वा तत्पुरबहिर्वृक्ष कोटरे स्थितं तमेव समाधिगुप्तमुनिं वन्दितुं पित्रा समं विभूत्या जगाम । तन्मार्गे कौशिकनामा तापसः पञ्चाग्निं साधयन् स्थितः । स केनचित्प्रशंसितो वज्रसेनोऽयं मूर्खः पशुप्रख्यः प्रशंसार्हो न भवतीति निनिन्द । तदा तापसोऽत्यन्तकुपितोऽपि किं १९६ एक दिन उस नगर के उद्यानमें विपुलमति और विपुलबुद्धि नामके दो मुनि आकर विराजमान हुए | वनपालसे उनके शुभागमनको जानकर भूपाल राजा आदि उनकी वन्दना के लिए गये । सबने वन्दना करके उनसे धर्मश्रवण किया । तत्पश्चात् भविष्यदत्तने उनसे अपने और भविष्यानुरूपा के विशेष पुण्य, दोनोंके पारस्परिक स्नेह, अच्युतेन्द्र के द्वारा अपने ऊपर प्रगट किये गये स्नेह, राजा अरिंजय और राक्षसके वैर, भविष्यानुरूपा के ऊपर विद्यमान अपने मोह और कमलश्री के दुर्भाग्यके भी कारणको पूछा । तदनुसार विपुलमति बोले- इसी द्वीपके ऐरावत क्षेत्रस्थ आर्यखण्ड में सुरपुर नामका नगर है । उसमें वायुकुमार नामका राजा राज्य करता था | रानीका नाम लक्ष्मीमती था । इस राजा के वज्रसेन नामका मन्त्री था। उसकी पत्नीका नाम श्री और पुत्रीका नाम कीर्तिसेना था । वज्रसेनने इस पुत्रीका विवाह अपने भानजेके साथ कर दिया था । परन्तु वह उसे नहीं चाहता था । इसलिए वह अपने पिताके घरपर ही रहती हुई श्री पञ्चमी (श्रुतपञ्चमी) व्रतका पालन कर रही थी। उसी नगर में एक धनदत्त नामका अतिशय धनवान् सेठ रहता था । उसकी पत्नीका नाम नन्दिभद्रा था । उनके एक नन्दिमित्र नामका पुत्र था । वे धनदत्त आदि मिथ्यादृष्टि थे | उन्हें धनमित्र नामके एक दूसरे जैन सेठने समझाकर अणुव्रत ग्रहण करा दिये थे । एक दिन ग्रीष्म ऋतु अनेक उपवासोंको करके समाधिगुप्त मुनि पारणा के लिए आये थे । उनका सब शरीर पसीने से तर हो रहा था । उनको देखकर नन्दिभद्राको घृणा उत्पन्न हुई । इससे उसके दुर्भग नामकर्मका बन्ध हुआ । उधर उसका पुत्र नन्दिमित्र इन्हीं समाधिगुप्त मुनिराज के समीपमें तपश्चरण करके अच्युत स्वर्गका इन्द्र हुआ था । कीर्तिसेना श्रुतपञ्चमीत्रतका उद्यापन करके नगरके बाहिर वृक्ष के खोते में स्थित उन्हीं समाधिगुप्त मुनिकी वन्दना के लिये विभूतिपूर्वक पिता के साथ जा रही थी । उस मार्ग में एक कौशिक नामका तापस पञ्चामि तप कर रहा था । उसकी जब किसीने प्रशंसा की तब वज्रसेनने कहा कि यह मूर्ख पशुके समान अज्ञानी है, वह प्रशंसा के योग्य नहीं है; इस प्रकार वज्रसेनने उसकी निन्दा की । इससे उस तापसको क्रोध तो १ ब राजस्यु । २ ज प Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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