Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुण्यास्रवकथाकोशम्
[५-४, ३७ मन्त्रिणा दुर्मतिनोक्तं हे नाथ, त्वं महामण्डलेशपुत्रोऽतिरूपवान् युवा च । त्वां विहायाशोकस्य माला निक्षिप्ता कन्यया । कन्या किं न जानाति । परं (?) किंतु मघवता पूर्व तस्य प्रतिपन्नेति तत्संमतेन (?) तया तस्य माला निक्षिप्ता। तत उभौ रणे हत्वा कन्या स्वीकर्तव्येति । तदा महामतिमन्त्रिणोक्तमिमं मन्त्रं किं दातुमर्हसि, दुर्मतित्वाददासि । पूर्व सकलचक्रवर्तिपुत्रेणार्ककीर्तिना सुलोचना स्वयंवरे किं लब्धाऽतोऽयं मन्त्रो न युक्त इति । तथापि रणाग्रहं न तत्याज महेन्द्रः । सर्वे क्षत्रियास्तस्यैव मिलिताः । तथापि महामतिर्बभाण-स्वयंवरधर्म ईदृश एव, युद्धमनुचितमथ च योत्स्यध्वं तर्हि तदन्तिकं कन्यायाचनाय मन्त्री प्रेषणीय स्तद्वचनेन दत्ता चेद्दत्ता, नो चेत् यूयं यजानीत तत्कुरुत इति । तद्वचनेन तत्रातिविचक्षणो दूतः प्रेषितः । स च गत्वा तदने उक्तवान् युवयोमहेन्द्रादयो रुष्टास्तस्मात्कन्यां महेन्द्राय समय॑ सुखेन जीवथस्तन्निमित्तं मा म्रियेथामिति । अशोकोऽवदत् हे दृत, स्वयंवरे कन्या यस्य मालां निक्षपति स एव तस्याः स्वामीति, स्वयंवरधर्म ईगेव । अतो मे बाणमुखाग्नौ ते स्वामिन एव पतङ्गाः पतितुमिच्छन्ति चेत्पतन्तु, किं नष्टम् । दृश्यत एव रणे तत्प्रतापो याहीति तं विससर्जाशोकः । स गत्वा यथावत्कथितवान् महेन्द्रादीनाम् । ततस्ते संग्रामकुरुवंशी राजा वीतशोक और विमलाका पुत्र अशोक है जो समस्त गुणोंका स्वामी है । तब रोहिणीने उसके गलेमें माला डाल दी। उस समय महेन्द्रके मन्त्री दुर्मतिने उससे कहा कि हे नाथ ! तुम महामण्डलेश्वरके पुत्र होकर अतिशय सुन्दर और तरुण हो। फिर भी इस कन्याने तुम्हारी उपेक्षा करके अशोकके गलेमें माला डाली है। क्या कन्या इस बातको नहीं जानती है ? परन्तु मघवाने उसे अशोकके विषयों पहिले ही कह रक्खा था। इस प्रकार उसकी सम्मतिसे ही कन्याने अशोकके गलेमें माला डाली है । इसलिए तुम उन दोनों ( मघवा और अशोक ) को युद्धमें मारकर कन्याको ग्रहण कर लो। तब महामति नामक मन्त्रीने उससे कहा कि क्या तुम्हें ऐसी सम्मति देना योग्य है ? तुम केवल दुष्ट बुद्धिसे ही वैसी सम्मति दे रहे हो । पहिले भरत चक्रवर्तीके पुत्र अर्ककीर्तिने भी सुलोचनाके कारण जयकुमारके साथ युद्ध किया था, परन्तु क्या वह सुलोचना उसे स्वयंवरमें प्राप्त हो सकी थी ? नहीं। इसलिए यह विचार योग्य नहीं है । फिर भी महेन्द्रने युद्ध के दुराग्रहको नहीं छोड़ा। उस समय सब राजा उसीके पक्षमें सम्मिलित हो गये । तब फिरसे भी महामति मन्त्रीने कहा कि स्वयंवरकी पृथा ही ऐसी है। अतः उसके लिए युद्ध करना अनुचित है। फिर भी यदि युद्ध करना है तो मघवाके पास कन्याको माँगने के लिए मन्त्रीको भेजना योग्य होगा। उसके कहनेसे यदि वह कन्याको दे देता है तो ठीक है । अन्यथा तुम जो उचित समझो, करना । तदनुसार वहाँ एक अतिशय निपुण दूतको भेजा गया । दूतने उन दोनोंके पास जाकर कहा कि तुम दोनोंके ऊपर महेन्द्र आदि रुष्ट हुए हैं। इसलिए तुम कन्याको महेन्द्र के लिए देकर सुखसे जीवनयापन करो। उसके कारण तुम मृत्युके मुखमें प्रविष्ट मत होओ। दूतके इन वचनोंको सुनकर अशोक बोला कि हे दूत ! स्वयंवरमें कन्या जिसके गलेमें माला डालती है वही उसका स्वामी होता है, ऐसा ही स्वयंवरका नियम है । इसलिए मेरे बाणोंके मुखरूप अग्निमें तेरे स्वामी ही यदि पतंगा बनकर गिरना चाहते हैं तो गिरें, इसमें हमारी क्या हानि है ? उनके पराक्रमको मैं युद्ध में ही देखूगा, जाओ तुम । यह उत्तर देकर अशोकने
१. श 'न' नास्ति । २. श स्तथैव। ३. पश संसमl । ४. श अतोमेवाग्नौ। ५. फ किन नष्टं ब कि न दृष्टं । ६.ज प श जाहीति ।
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