Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुण्यात्रवकथाकोशम्
[ ५-१, ३४:
लोक्य नतवान् । तदा व्यालस्तं प्रभोः पादयोरपीपतत् स्वरूपं विशप्तवान् । तदा जायंधरिविभूत्या राजभवनं विवेश सुखेन तस्थौ । सुशीलां सिंहपुरमयापयत् ।
एकदोद्यानं व्यालेन समं क्रीडितुं ययौ । तत्र वीणाहस्तान् कुमारकान् वीच्या पृच्छच्च के यूयं कस्मादागता इति । तत्रैकोऽब्रवीत् सुप्रतिष्ठपुरेशशर्के विनयवत्योः सुतोऽहं कीर्तिवर्मा वीणावाद्येऽतिकुशलो मच्छात्रा एते पञ्चशताः । काश्मीरपुरेशनन्दधारिण्योः सुता त्रिभुवनतिर्वोणया यो मां जयति स भर्तेति कृतप्रतिज्ञा । तद्वृत्तं समवधार्य वादार्थी तत्रागमम् । तया निर्जितोऽहमिति । निशम्य कुमारस्तान् विससर्ज । तत्र गन्तुमुद्यतो " जज्ञे । व्यालस्तत्र व्यवस्थापितोऽपि सह चचाल । दुष्टवाक्यमेव तत्र नियुज्य ययौ । तां जिगाय ववार च सुखेन तस्थौ ।
एकदास्थानगतमनेकदेशपरिभ्रमणशीलं वणिजमप्राक्षीत् किं क्वापि त्वया कौतुकं दृष्टमिति । स कथयति - रम्यकाख्यकानने त्रिशृङ्गनगस्योपरि स्थितभूतिलकजिनालयस्याग्रे प्रतिदिनं मध्याह्ने व्याध आक्रोशं करोति, कारणं न वेद्मि । त्रिभुवनरतिं तत्रैव निधाय तत्राट ।
हुआ दुष्टवाक्य के सामने आया । तब वह अपने स्वामी व्यालको देखकर नम्रीभूत हो गया । पश्चात् व्यालने उसे अपने स्वामी (नागकुमार) के पैरों में झुकाते हुए नागकुमारका परिचय दिया । तत्र जयन्धरका पुत्र वह नागकुमार महाविभूतिके साथ राजभवनमें प्रविष्ट होकर सुखपूर्वक स्थित हो गया । उसने सुशीलाको सिंहपुर पहुँचा दिया |
एक समय नागकुमार व्यालके साथ क्रीड़ा करनेके लिये उद्यानमें गया । वहाँ उसने हाथमें वीणा को लिये हुए कुछ कुमारों को देखकर उनसे पूछा कि आप लोग कौन हैं और कहाँ से आये हैं ? तब उनमेंसे एकने उत्तर दिया कि मैं सुप्रतिष्ठपुरके स्वामी शक और विनयवतीका पुत्र हूँ । नाम मेरा कीर्तिवर्मा है । मैं वीणा बजाने में अतिशय प्रवीण हूँ । ये मेरे पाँच सौ शिष्य हैं । काश्मीरपुरके राजा नन्द और धारिणीके त्रिभुवनरति नामकी एक कन्या है । उसने यह प्रतिज्ञा की है कि जो मुझे वीणा बजाने में जीत लेगा वह मेरा पति होगा । उसकी इस प्रतिज्ञाका विचार करके मैं वादकी इच्छासे वहाँ गया था । परन्तु उसने मुझे जीत लिया है । इस वृत्तान्तको सुनकर नागकुमार ने उन्हें विदा कर दिया और स्वयं काश्मीर जानेके लिए उद्यत हो गया । यद्यपि नागकुमारने व्यालको वहीं पर रहनेके लिए प्रेरणा की थी, परन्तु वह उसके साथ ही गया । वह दुष्टवाक्यको ही वहाँ नियुक्त करता गया । काश्मीरपुरमें जाकर नागकुमारने उक्त कन्याको वीणावादनमें जीत कर उसके साथ विवाह कर लिया । फिर वह कुछ दिन वहाँ ही सुखपूर्वक स्थित रहा ।
एक बार जब नागकुमार सभा में स्थित था तब वहाँ अनेक देशोंमें परिभ्रमण करनेवाला एक वैश्य आया । उससे नागकुमारने पूछा कि क्या तुमने कहींपर कोई आश्चर्य देखा है ? उसने उत्तर दिया— रम्यक नामके वनमें त्रिशृंग पर्वतके ऊपर स्थित भूतिलक जिनालय के आगे प्रतिदिन मध्याह्नके समयमें एक भील चिल्लाया करता है । वह किस कारण से चिल्लाया करता है, यह मैं स्वयं नहीं जानता हूँ | यह सुनकर नागकुमार त्रिभुवनरतिको वहीं पर छोड़कर उक्त पर्वतपर गया ।
१. ब - प्रतिपाठोऽयम् । शमवापयत् । २. ब पुरेशशांक विनय । ३ ब शताः काश्मीरदेशे काश्मीर' । ४. त्रिभुवनवती । ५. श तत्र मुद्यतो । ६. ब त्रिसंग |
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