Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुण्यात्र कथाकोश
[ ५-१, ३४ :
पृच्छत् कस्येमे भृत्या इति । तैः स्वरूपे निरूपिते व्यालस्तदापणस्थापितायुधोऽपि तान् निवारितवान् । यदा न तिष्ठन्ति तदा गजस्तम्भमादाय सिंहनादादिकं कुर्वन् तैर्युद्धवान् । तं कलकलमवधार्य यावन्नागकुमारो बहिर्निर्गच्छति तावद् व्यालस्तान् सर्वान् हत्वा तं नतवान् । साश्चर्य प्रतापंधरः तमालिङ्ग्य तद्धस्तं धृत्वा स्वगृहं विवेश । इतः श्रीधरो भृत्यमारणमाकराय सबलस्तेन योद्धुं निर्जगाम, इतरोऽपि सव्यालः । तदा नयंधरेण राजा विशप्तो देव, द्वयोर्मध्ये एको' निर्धाटनीय इति । राज्ञोक्तं श्रीधरं निर्धाटय । मन्त्रिणोक्तम्-न, सोऽपुण्यो देशान्तरगतश्चेत्तवाप्रसिद्धिर्भविष्यति । अतो नागकुमार एव पुण्यवान् सुभगश्च यात्विति । रामः संमतेन मन्त्रिणा नागकुमारस्योक्तं गेहे शूरस्त्वमन्यथा किं देशान्तरं न यास्यसीति, किं पितृसमानभ्रात्रा युध्यसे । कुमारोऽब्रवीत् - स एव मां मारयितुं लग्नः, किं ममान्यायः । स रणाग्रहं त्यक्त्वा यातु स्वस्थानम् । ततोऽहं देशान्तरं यास्याम्यन्यथा योत्स्यें । ततो मन्त्री श्रीधरान्तिकं जगाम बभाण च हे मूढ, आत्मशक्तिं न जानासिं । तव पञ्चशतसहस्रभटास्तदेकेन भृत्येन मारिताः । तेन सह कथं योत्स्यसे । तस्मान्मा म्रियस्व, याहि स्वावासम्, इत्यादिनानावचनैर्निवर्तितोऽग्रजः ।
उन्हें आते देखकर व्यालने द्वारपालोंसे पूछा कि ये किसके सेवक हैं ? उत्तर में उन्होंने बतलाया कि ये श्रीधरके सेवक हैं ? वह अपने शस्त्रोंको उस समय बाजारमें ही छोड़कर यहाँ आया था, फिर भी उसने बिना शस्त्रोंके ही उन्हें भीतर जानेसे रोक दिया । परन्तु जब वे बलपूर्वक भीतर जानेको उद्यत हुए तब व्याल हाथीके बाँधनेके खम्भेको उखाड़कर सिंहके समान दहाड़ते हुए उनसे युद्ध करने लगा । उस कोलाहलको सुनकर जब तक नागकुमार बाहर आया तब तक व्याल उन सबको नष्ट कर चुका था। उसने कुमारको नमस्कार किया । इस दृश्य को देखकर नागकुमारके लिये बहुत आश्चर्य हुआ । वह व्यालका आलिंगन करते हुए उसे हाथ पकड़ कर भवन के भीतर ले गया । इधर श्रीधर ने जब उन सुभटोंके मारे जानेका समाचार सुना तो वह सेनाके साथ नागकुमारसे स्वयं युद्ध करनेके लिये निकल पड़ा । तब व्यालके साथ नागकुमार भी युद्ध के लिये उद्यत हो गया । तब नयंधर मन्त्रीने राजासे प्रार्थना की कि हे देव ! इन दोनोंमें से किसी एकको निकाल देना चाहिए । तब राजाने कहा कि ठीक है श्रीधरको निकाल दो। इसपर मन्त्री ने कहा कि नहीं, वह पुण्यहीन है । यदि वह देशान्तरको जायेगा तो आपकी अपकीर्ति होगी । किन्तु नागकुमार चूँकि पुण्यात्मा और सुन्दर है, अतएव वही बाहर भेजा जावे | इसपर राजाको सम्मति पाकर मन्त्रीने नागकुमारसे कहा कि तुम घरमें ही शूर हो । नहीं तो देशान्तरको क्यों नहीं जाते हो, पिता के समान भाईके साथ युद्ध क्यों करते हो ? यह सुनकर नागकुमार बोला कि वही मुझे मारनेके लिये उद्यत हुआ है, इसमें मेरा क्या दोष है ? वह युद्धकी हठको छोड़कर यदि अपने स्थानको वापिस जाता है तो मैं देशान्तरको चला जाता हूँ, अन्यथा फिर युद्ध करूँगा । इसपर मन्त्री श्रीधर के पास जाकर उससे बोला कि हे मूर्ख ! तुझे अपनी शक्तिका परिज्ञान नहीं है क्या ? उसके एक ही सेवकने तेरे पाँच सौ सहस्रभटोंको मार डाला है। तू उसके साथ कैसे युद्ध करेगा ? इसलिये तू व्यर्थ प्राण न देकर अपने स्थानको वापिस चला जा | इस प्रकार अनेक बचनोंके द्वारा समझाकर मन्त्रीने श्रीधरको वापिस किया ।
१. शएको पिनि । २. ब- प्रतिपाठोऽयम् । फ नासौ पुण्यो । ३. प श सन्मतेन । ४. क श योत्स्यसे ! ५. ब जानाति । ६. प श स्तदैकेन । ७. ब 'सह' नास्ति ।
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