Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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૪૬
gomtaaresोशम्
महत्तरं भद्रकलशमाहूयादेशो दत्तः यथा सीतया धर्मः क्रियते तथा कुरु त्वमिति ।
इतः सीता द्वादशानुप्रेक्षा भावयन्ती तस्थौ । अस्मिन् प्रस्तावे तत्र हस्तिधरणार्थं कश्चिन्मण्डलेश्वरः समायातः । तद्धृत्यैर्दृष्ट्रा राज्ञे निरूपिते तेनागत्य विस्मितेन दृष्ट्वा का यमिति पृष्टा । ज्ञातवृत्तान्तेनोक्तं राज्ञा 'जैनधर्मेण मम भगिनी त्वम्' । तयोक्तं कस्त्वम् । पुण्डरीकिणी पुरेशः सूर्यवंशोद्भवो वज्रजङ्गोऽहम् । आगच्छ मत्पुरं कुरु प्रसादम् | गजधरणं विहाय तां पुरस्कृत्य स्वपुरं गतः । स्वभगिनी प्रभावती सर्वगुणसंपूर्णा विधवा सर्वदा धर्मरता, तत्स्वरूपं निरूप्य तस्याः समर्पिता । तत्र तिष्ठन्ती नवमासावसानेषु पुत्र [त्रौ ] प्रसूतौ, वज्रजङ्गेन महोत्सवः कृतः, लवाङ्कुशमदनाङ्कुशनामानौ कृतौ । बाल्ये सर्वेभ्यः सोत्साहं रेमाते । शैशवावसाने नानादेशान् परिभ्रमता तत्रैकदागतेन तयोर्दशनमात्राजनित स्नेहेन सिद्धार्थलकेन शास्त्रास्त्रप्रौढी कृतौ । तयोर्यौवनमभीर्य वज्रजङ्घन स्वस्य लक्ष्मीमत्याश्चोत्पन्नाः शशिचूडादयो द्वात्रिंशत्कुमार्यो लवाय दत्ताः । तदनु अङ्कुशाय पृथिवीपुरेशपृथु पृथिवीश्रियोः पुत्री कनकमाला याचिता । तेनोक्तम्- 'स्वयं नष्टो दुरात्मान्यांश्च नाशयति, अज्ञात
[ ४-४, २३ :
रामचन्द्र ने सीता के महत्तर ( अन्तःपुरका रक्षक ) भद्रकलशको बुलाया और उसे यह आज्ञा दी कि जिस प्रकार सीता धर्म किया करती थी उसी प्रकारसे तुम धर्म करते रहो ।
उधर सीता बारह भावनाओंका विचार करती हुई उस भयानक वनमें स्थित थी । इस बीचमें वहाँ कोई मण्डलेश्वर राजा हाथी को पकड़नेके विचारसे आया । उसके सेवकोंने वहाँ विलाप करती हुई सीताको देखकर उसका समाचार राजासे कहा । तब राजाने आश्चर्यपूर्वक सीताको देखकर पूछा कि तुम कौन हो ? उत्तर में सीताने जब अपने वृत्तान्तको सुनाया तब यथार्थ स्थितिको जान करके वह बोला कि जैन धर्मके नातेसे तुम मेरी धर्मबहिन हो । तब सीता ने भी उससे पूछा कि तुम कौन हो ? इसके उत्तर में वह बोला कि मैं पुण्डरीकिणी पुरका राजा सूर्यवंशी वज्रजंघ हूँ । तुम कृपा करके मेरे नगर में चलो। इस प्रकार वह हाथीको न पकड़ते हुए सीताको आगे करके अपने नगरको वापिस गया । वज्रजंघके एक प्रभावती नामकी सर्वगुण सम्पन्न विधवा बहन थी । वह निरन्तर धर्मकार्य में उद्यत रहती थी । वज्रजंधने सीताके वृत्तान्तको कहकर उसे अपनी उस बहिन के लिये समर्पित कर दिया । वहाँ रहते हुए सीताने नौ महीनों के अन्तमें दो पुत्रोंको जन्म दिया । इसके उपलक्ष्य में वज्रजंघ राजाने महान् उत्सव किया। उसने उन दोनों के लवांकुश और मदनांकुश नाम रक्खे । बाल्यावस्थामें वे दोनों आनन्दपूर्वक क्रीड़ा करते हुए सबको प्रसन्न करते थे । धीरे-धीरे जब उनका शैशव काल बीत गया तब वहाँ एक समय अनेक देशों में परिभ्रमण करता हुआ सिद्धार्थ क्षुल्लक आया । इन दोनों को देखते ही उसके हृदय में स्नेह उत्पन्न हुआ । तब उसने इन दोनों को शास्त्र व शस्त्र विद्यामें निपुण क्रिया । उन दोनोंकी युवावस्थाको देखकर वज्रजंघने लवके लिये अपनी पत्नी लक्ष्मीमती से उत्पन्न हुई कुमारिकाओं को दे दिया । तत्पश्चात् उसने अंकुशके लिये पृथिवी पुरके पुत्री कनकमालाको मांगा । उसके उत्तर में पृथु राजाने कहा कि वह हुआ ही है, साथ ही वह दूसरोंको भी नष्ट करना चाहता है । जिसके कुल और स्वभावका परि
शशिचूडा आदि बत्तीस राजा पृथु और पृथिवी श्रीकी दुष्ट वज्रजंघ स्वयं तो नष्ट
१. फश भावयती । २. ब स्थिताः । ३. ब ज्ञातवृतान्ते तेनोक्तं । ४. श पुंडरीपुरेशः । ५. ब वसाने पुत्रयुगलं प्रसूते । ६. ब महोत्साहः कृतो । ७. फ परिभ्रमिता । ८. बमवीक्ष्य । ९. ब- प्रतिपाठोऽयम् ।
श लक्ष्मीमत्यादयोत्पन्ना ।
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