Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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: ५-१, ३४ ]
५. उपवासफलम् १
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पुरुशोभां कृत्वा जयंधरः संमुखं ययौ, महाविभूत्या पुरं प्रवेश्य सुमुहूर्ते अवीवरत्, महादेव 'चकार । तां विहायान्या अष्टसहस्रास्तद्राइयो विशालनेत्रां सेवन्ते ।
एवमेकदा वसन्तोत्सवे राजा सकलजनेन सहोद्यानं गतः । विशालनेत्रा तदन्तः पुरादिसकलस्त्रीजनेन पुष्पकमारुह्य चलिता । तदनु सुशृङ्गारितं भद्रहस्तिनं चटित्वा पृथ्वी महादेवी चलिता । तदागमनाडम्बरं निरीक्ष्य कोsय [केय ]मागच्छतीति विशालनेत्रा कांचिदपृच्छत् । तयोक्तुं पृथ्वीति श्रुत्वा सा तद्रूपावलोकनार्थं तत्रैवास्थात् । तत्स्थितिं वीक्ष्य पृथ्व्योक्तं तिष्ठति । कयाचिदुक्तं श्रप्रेमहिषीति । मत्प्रणामार्थं तिष्ठतीति मत्वा पृथ्वी जिनालयं ययौ । जिनमभ्यर्च्य मुनिं पिहितास्रवं च नत्वा दीक्षां ययाचे । मुनिर्वभाण - तव पुत्रराज्यविभूतिदर्शनानन्तरं राज्ञा सह तपो भविष्यतीति । तयाभाणि मे किं तनयो भविष्यतीति । तेनोक्तं भविष्यति । स च कामो महामण्डलेश्वरश्वरमाङ्गश्च स्यात् । स चैवंविधः स्यादित्यमीभिः साभिज्ञानैर्विबुध्यस्व | कैरित्युक्ते राजभवननिकटोद्याने सिद्धकूटो जिनालयोऽस्ति । तत्कपाटो देवैरप्युद्घाटयितुं न शक्यते स कपाटस्तत्सुतंचरणाङ्गुष्ठस्पर्शनमात्रेणोटियति । तदा स नागवाप्यां पतिष्यति । तं नागाः स्वशिरःसु धरिष्यन्ति । प्रवृद्धः सन्नील
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आगमनको सुनकर जयंधर राजा नगरको सुसज्जित कराकर अगवानी के लिए सन्मुख गया । तत्पश्चात् उसने महती विभूतिके साथ पुरमें प्रविष्ट होकर शुभ लग्न में उस कन्याके साथ विवाह कर लिया । साथ ही उसने उसे महादेवी भी बना दिया । उस पृथ्वी देवीको छोड़कर दूसरी आठ हजार रानियाँ विशाल नेत्राकी सेवा करती थीं ।
एक समय वसन्तोत्सवमें राजा जयंधर समस्त जनोंके साथ उद्यानमें गया | साथमें विशालनेत्रा भी अन्तःपुरकी समस्त रानियों के साथ पुष्पक ( पालकी ? ) पर चढ़कर गई । उसके पीछे सुसज्जितभद्र हाथी के ऊपर चढ़कर पृथ्वी महादेवी भी चल दी। उसके आगमन के ठाटबाटको देखकर विशालनेत्राने किसीसे पूछा कि यह कौन आ रहा है ? उसने उत्तर दिया कि वह पृथ्वी रानी आ रही है । इस बातको सुनकर वह उसके रूपको देखने के लिये वहींपर ठहर गई । उसके अवस्थानको देखकर पृथ्वीने पूछा कि यह आगे कौन स्थित है ? तब किसी ने कहा कि वह पट्टरानी है । यह सुनकर पृथ्वीने विचार किया कि शायद वह लिये यहाँ रुक गई । यह सोचकर वह जिनालय में चली गई । वहाँ उसने पिहितास्रव मुनिको नमस्कार करते हुए उनसे दीक्षा देनेकी याचना की । कि तू अपने पुत्रकी राज्यविभूति को देखकर तत्पश्चात् राजाके साथ दीक्षा ग्रहण करेगी । तब
मुझसे प्रणाम कराने के जिनेन्द्र की पूजा करके इसपर मुनिराजने कहा
पृथ्वीने उनसे पूछा कि क्या मेरे पुत्र उत्पन्न होगा ? मुनिने उत्तर दिया कि हाँ तेरे पुत्र होगा और वह भी कामदेव, महामण्डलेश्वर एवं चरमशरीरी होगा । वह पुत्र इस प्रकारका होगा, इसका निश्चय तुम इन चिह्नों से करना - राजभवन के निकटवर्ती उद्यानमें सिद्धकूट जिनालय है । उसके किवाड़ों को खोलने के लिए देव भी समर्थ नहीं हैं । फिर भी वे किवाड़ उस पुत्रके पाँवके अँगूटेके छूने मात्रसे ही खुल जावेंगे । उस समय वह बालक नागवापिका में गिर जावेगा । उसे वहाँ सर्प अपने शिरोंके ऊपर धारण करेंगे। जब वह विशेष वृद्धिंगत होगा तब वह नीलगिरि नामक हाथीको अपने वश में करेगा । इसी प्रकार वह दुष्ट घोड़े को भी वश में करेगा । इस शुभ वार्ताको
१. ब 'च' नास्ति । २. ब- प्रतिपाठोऽयम् श कोग्रे । ३. बस त्वत्सुत' । ४. ब स्वशिरसि ।
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