Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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: ४-३, २८]
४. शीलफलम् ३ देवासुराणामासनानि प्रकम्पितानि । ते च तदुपसर्गमवबुध्य तत्र समागुः । सर्वोऽपि पुरजनो हा-हा कुर्वन् कुबेरप्रिय, तव किमभूदिति दुःखी भूत्वावलोकयन् स्थितः। तदा मातङ्गः इष्टदेवतां स्मरेति भणित्वा असिना शिरो हन्ति स्म । सोऽसिस्तत्कण्ठे हारोऽजनि । मातङ्गो जय जयेति भणित्वाऽपससार । मन्त्री प्रवृद्धमत्सरः सभृत्यो नानायुधानि मुमोच । तानि फलपुष्पादिरूपेण परिणतानि । तदा देवैः कृतपञ्चाश्चर्याद्विबुध्य राजागत्य चपलगतिं गर्दभारोहणादिकं कारयित्वा निर्धाटयामास । श्रेष्टिनं क्षमां कारयति स्म । श्रेष्ठी क्षमां कृत्वोक्तवान् पाणिपात्रे भोक्तव्यम् । राज्ञोक्तं मयापि । तदा वसुपालाय राज्यं श्रीपालाय युवराजपदं' श्रेष्ठिपुत्रकुबेरकान्ताय श्रेष्ठिपदं वितीर्य बहुभिनिष्क्रान्ती, सत्यवत्याद्यन्तःपुरमपि। स मातङ्गोऽहिंसाव्रतमुपवासं च पर्वणि करिष्यामीति कृतप्रतिज्ञो यो लाक्षागृहे विद्युद्वेगाय धर्मोपदेशं चकार । तौ कुबेरप्रियगुणपालमुनी सुरगिरी समुत्पन्न केवलौ विहृत्य तत्रैव मुक्ति जग्मतुः। एवं बहुपरिग्रहोऽपि श्रेष्ठी सुरमहितोऽभूच्छीलेनान्यः किं न स्यादिति ॥३॥
चाण्डालको बुलाया और उसके हाथमें तलवारको देकर कहा कि इसके शिरको काट डालो । उस समय उसके शीलके प्रभावसे देवों एवं असुरोंके आसन कम्पायमान हुए। इससे वे कुबेरमित्रके उपसर्गको ज्ञात करके वहाँ आ पहुँचे। उस समय सब ही नगरवासी जन हा-हाकार करते हुए यह विचार कर रहे थे कि हे कुबेरप्रिय ! तुम्हारे ऊपर यह घोर उपसर्ग क्यों हुआ । इस प्रकारसे वे सब वहाँ अतिशय दुखी होकर यह दृश्य देख रहे थे। इसी समय 'अपने इष्ट देवताका स्मरण करो' यह कहते हुए उस चाण्डालने कुबेरप्रियके शिरको काटनेके लिए तलवारका प्रहार किया। परन्तु वह तलवार सेठके गलेका हार बन गई। यह देखकर वह चाण्डाल 'जय जय' कहता हुआ वहाँसे हट गया । तब उस मन्त्रीने बढ़ी हुई ईर्ष्याके कारण अन्य सेवकोंके साथ उसके ऊपर अनेक आयुधोंका प्रहार किया। परन्तु वे सब ही फल-पुष्पादिके रूपमें परिणत होते गये। उस समय देवोंके द्वारा किये गये पंचाश्चर्यसे यथार्थ स्वरूपको जानकर राजा वहाँ जा पहुंचा। उसने चपलगतिको गर्दभारोहण आदि कराकर देशसे निकाल दिया। साथ ही उसने इसके लिए सेठसे क्षमा-प्रार्थना की। सेठने उसे क्षमा करते हुए कहा कि अब मैं पाणिपात्र में भोजन करूँगाजिन-दीक्षा ग्रहण करूँगा। इसपर राजा बोला कि मैं भी आपके साथ दीक्षा धारण करूँगा । तब वे दोनों वसुपालके लिए राज्य, श्रीपालके लिए युवराजपद और सेठपुत्र कुबेरकान्तके लिए राजसेठका पद देकर बहुत जनोंके साथ दीक्षित हो गये। इनके साथ सत्यवती आदि अन्तःपुरकी स्त्रियोंने भी दीक्षा ले ली। धर्मके माहात्म्यको देखकर उस चाण्डालने भी यह नियम ले लिया कि मैं पर्वके दिनमें किसी प्रकारकी हिंसा न करके उपवास किया करूँगा । यह वही चाण्डाल है जिसने कि लाखके घरमें स्थित होकर विद्युवेग चोरके लिए धर्मोपदेश दिया था (देखो पृष्ठ १२८ कथा २३)। कुबेरप्रिय और श्रीपाल इन दोनों मुनियों को सुरगिरि पर्वतके ऊपर केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् उन्होंने विहार करके धर्मोपदेश दिया । अन्तमें वे उसी पर्वतके ऊपर मुक्तिको प्राप्त हुए । इस प्रकार बहुत परिग्रहसे सहित भी वह सेठ जब शीलके प्रभावसे देवोंके द्वारा पूजित हुआ तब अन्य निर्ग्रन्थ भव्य क्या न प्राप्त करेगा ? वह तो मोक्षको भी प्राप्त कर सकता है ॥३॥
१.ब परिणमितानि । २. ब पाणिपात्रेण । ३. श युवराजपदं । ४. ब ययतः ।
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