Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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[ ३-४, २१-२२ :
कस्मिन् जिनालये तस्थौ । इतस्तद्वनितास्तमदृष्ट्वा स्वश्वश्रवाः कथितवत्यः । सा तच्छ्रुत्वा मूर्च्छिता इतस्ततो गवेषयन्ती वस्त्रमालां ददर्शानया गता इति बुबुधे । तचैत्यालये तं मुनिमपश्यन्ती तेनैव नीतः इति विचिन्त्य राजादयोऽपि महाग्रहेण गवेषयितुं गताः । न च क्वापि दृष्टस्तन्निर्गमनदिने तन्नगरपश्वादिभिरपि ग्रासादिकं त्यक्तम्, किं पुनर्बन्धुभिः । इतः सुकुमारमुनिरेकपार्श्व स्वपरवैयावृत्यनिरपेक्षो भावनया युतो यावदास्ते तावत्सा सोमदत्ताने योनिषु भ्रमित्वा तत्र शृगाली बभूव । तया तद्गमनकाले स्फुटितपादरुधिर'पादुका आस्वादयन्त्या गत्वा स मुनिर्निस्पन्दकात्मको दृष्टः । स्वयं तद्दक्षिणं चरणं पिल्लका वामचरणं च खादितुं लग्नाः । प्रथमदिने जानुनी, द्वितीये जङ्के खादिते । तृतीयदिनेऽर्धरात्रौ जठरं विदार्यान्त्रावली आकृष्टा । तदा परमसमाधिना तनुं विहाय सर्वार्थसिद्धावजनि । तदा सुरेश्वराणां विष्टराणि प्रकम्पितानि । विबुध्यासौ [ध्याहो] सुकुमारस्वामिना महाकालः कृत इति जयजयशब्देस्तूर्यादिभिश्व व्याप्ताशाः समाः, तच्छरीरपूजां चक्रिरे । तज्जयजयनिनादमाकर्ण्य तन्माता तत्तपोग्रहणं तद्गतिं विबुध्यार्त विसृज्य सोत्साहा बभूव, ततः स्तुतिं च चकार प्रातः सर्वजनमाहूय राजादिभिः सह तत्र जगाम । तदर्धशरीर
पुण्यात्रवकथाकोशम्
गये । इधर सुकुमारकी स्त्रियोंने उसे न देखकर अपनी सासूसे कहा । वह इस बात को सुनकर मूच्छित हो गई। तत्पश्चात् सचेत होकर जब इधर-उधर खोजा तब उसे वह वस्त्रमाला दिखायी दी। इससे उसे ज्ञात हुआ कि वह भवनके बाहर निकल गया है। फिर जब उसने चैत्यालय में जाकर देखा तो वहाँ उसे वे मुनि भी नहीं दिखायी दिये। अब उसे निश्चय हो गया कि कुमारको
मुनि ही गये हैं । इसी विचारसे राजा आदि भी महान् आग्रहसे उसे खोजने के लिये गये । परन्तु वह उन्हें कहीं पर भी नहीं मिला । सुकुमारके जानेके दिन बन्धुजनोंकी तो बात ही क्या है, किन्तु उस नगर के पशुओं तकने भी आहारादिको ग्रहण नहीं किया। उधर सुकुमार मुनि स्त्र व परकृत वैयावृत्तिसे निरपेक्ष होकर एक पार्श्वभागसे स्थित हुए और भावनाओंका विचार करने लगे ! उस समय वह सोमदत्ता ( अग्निभूतिकी पत्नी) अनेक योनियों में परिभ्रमण करती हुई उस वनमें श्रृंगाली हुई थी । वनमें जाते समय सुकुमारके कोमल पाँवोंके फूट जानेसे जो रुधिरकी धारा निकली थी उसको चाटती हुई वह शृगाली वहाँ जा पहुँची । उसने वहाँ उन निश्चल सुकुमार मुनिको देखा । तब वह उनके दाहिने पैर को स्वयं खाने लगी और वाँये पैर को उसके बच्चे खाने लगे । उन सबने पहिले दिन उनको घुटनों तक और दूसरे दिन जांघों तक खाया। तीसरे दिन आधी रात के समय जब उन सबने पेटको फाड़कर आँतों को खींचना प्रारम्भ किया तब उत्कृष्ट समाधिके साथ शरीरको छोड़कर वे सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न हुए । उस समय इन्द्रोंके आसन कम्पित हुए। इससे जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि सुकुमार स्वामी घोर उपसर्गको सहकर मरणको प्राप्त हुए हैं । तब वे जय जय शब्दों और वादित्रों आदिके शब्दोंसे समस्त दिशाओं को व्याप्त करते हुए वहाँ गये । वहाँ जाकर उन्होंने सुकुमारके शरीरकी पूजा की। देवोंके जय जय शब्दको सुनकर जब सुकुमारकी माताको उसके दीक्षित होकर उत्तम गतिको प्राप्त होनेका समाचार ज्ञात हुआ तब उसने आर्त ध्यानको छोड़कर सुकुमारको उत्साहपूर्वक स्तुति की । प्रातः काल हो जानेपर वह
१. ब ददर्शनायागति बुबुधे । २. ब लग्नाः । ३ ब तन्निर्गमदिने । ४. पार्श्वणा । ५. श भायनया । ६ ब गता । ७. ब प्रकंपिततानि तत्कालकृति बुध्याहो सुकुमार । ८ फश तच्छरीरे पूजां । ९. ब तत्स्तुतिं चकार ।
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