Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुण्याrasers शम्
[ ४, १-२, २६-२७ : निरूपयन् रतिप्रभदेवेन पृष्टो देव, जम्बूद्वीपभरते यथावत् शीलप्रतिपालकस्तथानरोऽस्ति नो वा । सुरपतिरुवाच । “कुरुजाङ्गलदेशे हस्तिनागपुरेशो मेघेश्वरो यथावच्छीलधारकस्तथा तदेवी सुलोचना च । सोऽपि पूर्वभवसाधितविद्य इति विद्याधरयुगलदर्शनेन जातिस्मरत्वे सति समागतविद्यः, सापि । स च तया सह संप्रति कैलाशं गत्वा वृषभेशं प्रणम्य समवसरणान्निर्गत्य तथा सहैकस्मिन् प्रदेशे क्रीडित्वा तस्यां विमानान्तर्निद्रायां समागतायां स वने क्रीडन् रम्यां शिलामपश्यत्तत्र ध्यानेन स्थितो वर्तते । साप्युत्थाय तमदृष्ट्रा कायोत्सर्गेणास्थात् ।” तच्छ्रुत्वा स देवस्तच्छीले परीक्षणार्थमागत्य स्वदेवीर्भूपनिकटमगमयत्तच्छीलं विनाशयतेति । स्वयं देवीनिकटं जगाम । ताभिस्तस्य नानाप्रकारस्त्रीधर्मैश्चित्तविक्षेपे कृतेऽपि भूभवनस्थितमणिप्रदीपवदकम्पमनाः स्थितवान् यदा तदा तासामाश्चर्यमासीत् । सोऽपि सुलोचनायाश्चित्तं बहुप्रकारैः पुरुषविकारैर्न चालयामास । तदोभावेकत्र मेलयित्वा हस्तिनागपुरं नीत्वा महागङ्गोदकेन स्नापयित्वा स्वर्गलोकजवस्त्राभरणैस्तावपू पुजत् सुरस्तदनुं शुद्धदृष्टिः स्वर्गलोकमगमत् । स च नृपस्तया सह सुरमहितः सुखेन तस्थौ । एवं बहुपरिग्रहौ सभामें व्रत व शीलके स्वरूपका निरूपण कर रहा था । उस समय रतिप्रभ नामक देवने उससे पूछा कि हे देव ! जम्बूद्वीपके भीतर स्थित भरत क्षेत्रमें इस प्रकार निर्मल शीलका परिपालन करनेवाला वैसा कोई पुरुष है या नहीं ? उत्तर में इन्द्रने कहा कि हाँ, कुरुजांगल देशके भीतर स्थित हस्तिनागपुरका अधिपति मेघेश्वर निर्मल शीलका धारक है । उसी प्रकार उसकी पत्नी सुलोचना भी निर्मल शीलका पालन करनेवाली है। उस मेघेश्वरने चूँकि पूर्वभवमें विद्याओंको सिद्ध किया था इसीलिए उसे एक विद्याधरयुगलको देखकर जातिस्मरण हो जानेसे वे सब विद्याएँ प्राप्त हो गई हैं। साथ ही उसकी पत्नी सुलोचनाको भी वे विद्याएँ प्राप्त हो गई हैं। इस समय उसने सुलोचनाके साथ कैलाश पर्वतपर जाकर ऋषभ जिनेन्द्रकी वंदना की । तत्पश्चात् उसने समवसरणसे निकलकर एक स्थानमें सुलोचना के साथ क्रीड़ा की । इस समय सुलोचनाको विमानके भीतर नींद आ जानसे जयकुमार वनमें क्रीड़ा करता हुआ एक रमणीय शिलाको देखकर उसके ऊपर ध्यान से स्थित है। उधर सुलोचना उठी तो वह भी जयकुमारको न देखकर कायोत्सर्गसे स्थित हो गई है । इन्द्रके द्वारा की गई इस प्रशंसाको सुनकर उस रतिप्रभ देवने आकर उनके शीलकी परीक्षा करनेके लिए अपनी देवियोंको मेघेश्वर के निकट भेजते हुए उनसे कहा कि तुम सब मेघेश्वर के समीपमें जाकर उसके शीलको नष्ट कर दो । तथा वह स्वयं सुलोचनाके पास गया । उन देवियोंने स्त्रीके योग्य अनेक प्रकारकी चेष्टाओं द्वारा मेघेश्वरके चित्तको विचलित करनेका भरसक प्रयत्न किया, फिर भी वह पृथिवीरूप भवनमें स्थित मणिमय दीपकके समान निश्चल ही रहा । उसके चित्तकी स्थिरताको देखकर उन देवियोंको बहुत आश्चर्य हुआ । इधर रतिप्रभ देव स्वयं भी पुरुषके योग्य अनेक प्रकारकी चेष्टाओं के द्वारा सुलोचना के चित्तको चलायमान नहीं कर सका । तब वह देव उन दोनोंको एक साथ लेकर हस्तिनागपुर ले गया । वहाँ उसने उन दोनोंका गंगाजल से अभिषेक करके स्वर्गीय वस्त्राभरणों से पूजा की । तत्पश्चात् वह सम्यग्दृष्टि देव स्वर्गलोकको वापिस चला गया। उधर देवोंसे पूजित वह मेघेश्वर सुलोचना के साथ सुखपूर्वक स्थित हुआ । इस प्रकार बहुत परिग्रहके धारक होकर अतिशय अनुरागी भी वे दोनों जब शीलके
१. ब श विमानान्तनिद्रायां । २. प श देवः शील । ३. फ ब तदा साश्चर्यमासीत् । ४. श लोकवस्त्रा । ५.फवपूपुजन् सुरस्तदनु, व 'वपूजन सुरस्तदनु श वपूपुजनुस्तदनु ।
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