Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुण्या लवकथाकोशम्
[ ३–६, २३ :
गतेराजादिभिस्तत्र गता । लोकपालो राजा रूपसमग्रं युवानं हिरण्यवर्ममुनिं विलोक्य तद्गुरुगुणचन्द्रयोगिनं पृष्टवान् श्रयं कः किमिति दीक्षितः । मुनिरब्रूत - श्रतीतभवे कुबेरकान्तश्रेष्ठ पारापतयुगलमासीत्तजन्मान्तरविरोधिमार्जारेण जम्बूग्रामे भक्षितम् । सहानानुमोद फलेन वियच्चरमुख्यदम्पती जाता । विमाननगरीं विलोक्य जातिस्मरौ भूत्वा दीक्षिताविति श्रुत्वा राजादयो मुनि नत्वा पुरं प्रविष्टाः । तया स्वभर्तुस्तद्वृत्तं कथितम् । तदा सोऽपि जातिस्मरो जातः । रात्रौ तं मुनिं तामर्जिको चोत्थाप्य श्मशानं नीत्वैकत्र बन्धित्वा चिताग्नौ चिक्षेप । तौ दिवं गतौ । दिनान्तरैः सोऽपि राजा [ज] भाण्डागारं मुमोषेति धृत्वा चतुर्दशीदिने मारणाय पितृवनमाकृष्टः । तदा तं चण्डाभिश्चाण्डालो न हन्ति, ममाद्य त्रसघातें निवृत्तिरस्तीति वदति । राज्ञा कोपेन लाक्षागृहे निक्षिप्य प्रातरग्निदयतामित्यादेशो दत्तो भृत्यानाम् । तथा कृते विद्युद्वेगेनोच्यते - हे चण्ड, मां हत्वा सुखेन किं न तिष्ठसि । मातङ्गोऽवोचज्जिनधर्मातिशयं विलोक्य चतुर्दश्यामुपवासोऽहिंसा' चागृहम् । ततो स्त्रिये, न तु मारयामि । तद्वचः श्रुत्वा चौरः स्वनिन्दां चक्रे 'अहोऽहं अस्मादपि निकृष्ट र्यत्यार्जिकयोर्वध कारकत्वात्' । उक्तवांश्व हे चण्ड, 'मुनिअर्जिकावधकस्य मे का गतिः स्यात्ते
१.३०
इधर वह बिलाव मरकर उस समय वहाँ विद्युद्वेग नामका कोतवालका अनुचर हुआ था । उसकी स्त्री निवन्दना के लिये जाते हुए राजा आदिके साथ गई । लोकपाल नामक राजाने सुन्दर हिरण्यवर्मा मुनिको तरुण देखकर उसके गुरु गुणचन्द्र योगीसे पूछा कि यह कौन है और किस कारण से दीक्षित हुआ है ? उत्तर में मुनि बोले कि यह युगल पूर्वभवमें कुबेरकान्त सेठके घरपर कबूतर और कबूतरी हुआ था । उनको इनके जन्मान्तरके शत्रु बिलावने जम्बूग्राममें खा लिया था । इस प्रकार से मरकर वे दोनों उत्तम दानकी अनुमोदना के प्रभावसे विद्याधरोंके स्वामी हुए । उन दोनों विमान नगरीको देखकर जातिस्मरण हो जानेसे दीक्षा धारण कर ली है । इस वृत्तान्तको सुनकर वे राजा आदि मुनिको नमस्कार करके नगरको वापिस जाये | कोतवालकी स्त्रीने घर वापिस आकर उपर्युक्त वृत्तान्तको अपने पति से कहा । तब उसे भी जातिस्मरण हो गया । वह रात में उन मुनि और आर्यिकाको उठाकर श्मशान में ले गया । वहाँ उसने उन दोनोंको एक साथ बाँधकर चिता की अग्निमें फेंक दिया । इस प्रकारसे मरणको प्राप्त होकर वे दोनों स्वर्गको गये । कुछ दिनोंके पश्चात् विदुद्वेग भी राजकोशके चुरानेके कारण पकड़ लिया गया । उसे चतुर्दशी के दिन मारने के लिये श्मशानमें ले जाकर चण्ड नामक चाण्डालको उसके बध करनेकी आज्ञा दी गई, परन्तु वह उसका वध करने को तैयार नहीं था । वह कहता था कि मैंने आजके दिन सवधका त्याग किया है। तब राजाने क्रोधित हो उसे लाखके घरमें रखकर सेवकों को यह आज्ञा दी कि प्रातःकालमें इसे अग्निसे भस्म कर देना । ऐसी अवस्था में विद्युद्वेगने उस चाण्डालसे कहा कि हे चण्ड ! तू मेरी हत्या करके सुखपूर्वक क्यों नहीं रहता है ? इसके उत्तर में चाण्डाल ने कहा कि मैंने जैन धर्मकी महिमाको देखकर चतुर्दशी के दिन उपवास रखते हुए अहिंसात्रतको ग्रहण किया है । इसीलिये मुझे मरना इष्ट है परन्तु मारना इष्ट नहीं है । चाण्डालके इन वचनों को सुनकर चोरने आत्मनिन्दा करते हुए विचार किया कि खेदकी बात है कि मैं इस चाण्डालसे भी अधम हूँ, क्योंकि, मैंने मुनि
१. फश गता । २. ब तामाजिकां । ३. -ब प्रतिपाठोऽयम् । श दिनान्तरे । ४. प श बकुलाभिधश्चांडालो | ५. फत्रसंघाते श त्रसद्घाते । ६. पमुपवास गृहीतवान् हिंसाव्रतं । ७. ब च गृह्वां । ८. ब त्या । ९. ब मुन्यायिका ।
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