Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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:३-४, २१-२२]
३. श्रुतोपयोगफलम् ४ जातः ख्यातगुणो विनष्टकलिलो देवः स्वयंभूर्यतो धन्योऽहं जिनदेवकः सुचरणस्तत्प्राप्तितो भूतले ॥ ४॥ निन्द्या दृष्टिविहीनपूतितनुका चाण्डालपुत्री च सा संजातः सुकुमारकः सुविदितोऽवन्तीषु भोगोदयः । यस्माद्भव्यसुवन्द्यदिव्यमुनिना संभाषितादागमात
धन्योऽहं जिनदेवकः सुचरणस्तत्प्राप्तितो भूतले ।। ५ ॥ अनयोः कथे सुकुमारुचरित्रे याते इति तत्कथ्यते । तथाहि- अङ्गदेशे चम्पायां राजा चन्द्रवाहनो देवी लक्ष्मीमती पुरोहितोऽतिरौद्रो मिथ्यादृष्टि गशर्मा भार्या त्रिवेदी पुत्री नागश्रीः । कन्या सा एकदा ब्राह्मणकन्याभिः पुरबाडोद्यानस्य नागालयं नागपूजार्थ ययौ । तत्र द्वौ मुनी सूर्यमित्राचार्याग्निभूतिभट्टारकनामानौ तस्थतुः । तौ विलोक्य नागश्रीरुपशान्तचित्ता ननाम धर्ममाकण्यं व्रतानि जग्राह । गृहमागमनसमये तस्याः सूर्यमित्रोऽवदत्-हे पुत्रि, यदि ते पिता व्रतानि त्याजयति तदा व्रतानि मे समर्पणीयानि इति । एवं करोमोति भणित्वा सा कन्या गृहं जगाम । तत्पिता पूर्वमेव ब्राह्मणकन्याभ्यस्तदवधार्य कुपितः आगतां पुत्रीं बभाण-हे पुत्रि विरूपकं कृतं त्वया, विप्राणां क्षपणकधर्मानुष्ठानमनुचितमिति । होकर प्रसिद्ध गुणोंका धारक स्वयम्भू ( सर्वज्ञ ) हो गया। इसीलिये वह सदा राजाओं व इन्द्रोंका भी वंदनीय हुआ। अतएव मैं जिन देवका भक्त होता हुआ उस आगमकी प्राप्तिसे सम्यकचारित्रको धारण करके इस लोकमें कृतार्थ होता हूँ ॥४॥
जो निकृष्ट चाण्डालकी पुत्री दृष्टिसे रहित ( अन्धी ) और दुर्गन्धमय शरीरसे संयुक्त थी वह भी भव्योंके द्वारा अतिशय वंदनीय ऐसे दिव्य मुनिसे प्ररूपित उस आगमके सुननेसे उज्जयिनी नगरीके भीतर भोगोंके भोक्ता सुप्रसिद्ध सुकुमालके रूपमें उत्पन्न हुई। अतएच मैं जिन देवका भक्त होकर उक्त आगमकी प्राप्तिसे सम्यक्चारित्रसे विभूषित होकर इस पृथिवीके ऊपर कृतार्थ होना चाहता हूँ ॥५॥
___ इन दोनों वृत्तोंकी कथायें सुकुमालचरित्रमें प्राप्त होती हैं। तदनुसार उनकी यहाँ प्ररूपणा की जाती है- अंग देशके भीतर चम्पापुरीमें चन्द्रवाहन राजा राज्य करता था। रानीका नाम लक्ष्मीमती था। उक्त राजाके यहाँ एक नागशर्मा नामका मिथ्यादृष्टि पुरोहित था जो अतिशय रौद्र परिणामोंसे सहित था । नागशर्माकी स्त्रीका नाम त्रिवेदी था । इन दोनोंके एक नागश्री नामकी पुत्री थी। एक दिन वह कन्या ब्राह्मण कन्याओंके साथ नागोंकी पूजा करनेके लिए नगरके बाह्य भागमें स्थित एक नागमन्दिरको गई थी। वहाँ सूर्यमित्र आचार्य और अग्निभूति भट्टारक नामके दो मुनिराज स्थित थे। उन्हें देखकर नागश्रीने निर्मल चित्तसे उन्हें प्रणाम किया । तत्पश्चात् उसने उनसे धर्मको सुनकर व्रतोंको ग्रहण कर लिया। जब वह उनके पाससे घरके लिये वापिस आने लगी तव सूर्यमित्र आचार्यने कहा कि हे पुत्री ! यदि तेरा पिता तुझसे इन व्रतोंको छोड़ देनेके लिये कहे तो तू इन व्रतोंको हमें वापिस दे जाना । उत्तरमें उसने कहा कि ठीक है, मैं ऐसा ही करूँगी। यह कहकर वह अपने घरको चली गई। नागश्रीके आनेके पूर्व ही नागशर्माको ब्राह्मण-कन्याओंसे वह समाचार मिल चुका था। इससे उसका क्रोध भड़क उठा । नागश्रीके घर आनेपर वह उससे बोला कि हे पुत्री ! तूने यह अयोग्य कार्य किया है, ब्राह्मणों के लिये दिगम्बर धर्मका आचरण करना
१. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श जाते ।
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