Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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१०.६ पुण्यात्रवकथाकोशम्
[३-३, २० एतैत्रिभिः श्लोकैः स्वाध्यायवन्दनादिकं कुर्वन् विहरमाणो धर्मनगरोद्याने कायोत्सर्गेण स्थितः । तमाकर्ण्य दीर्घ-गर्दभौ शङ्कितौ तं मारयितुं रात्रौ गतौ । तत्पृष्ठे स्थितो दीर्घस्तन्मारणार्थ पुनः पुनरसिमाकर्षति । बतिवधशङ्कितत्वान्न हन्ति । तथा गर्दर्भोऽपि । तस्मिन् प्रस्तावे मुनिना स्वाध्यायं गृह्यता प्रथमः खण्डश्लोकः पठितः । तमाकर्य गर्दभेन दीपो भणितो लक्षितौ मुनिना। द्वितीयखण्डश्लोकमाकर्ण्य भणितं गर्दभेन भो दीर्घ, मुनिन राज्यार्थमागतः किंतु कोणिकां कथयितुमागतः। तृतीयखण्डश्लोकमाकर्ण्य गर्दभेन चिन्तितं दुष्टोऽयं दी? मां हन्तुमिच्छति । मुनिः स्नेहान्मम बुद्धिं दातुमागतः। ततो द्वावपि तो मुनिं प्रणम्य धर्ममाकर्ण्य श्रावको जाती। यममुनिरप्यतीव वैराग्यं गतः श्रमणत्वं विशिष्टचारित्रं प्राप्य सप्तर्द्धियुक्तो जातः, मुक्तश्च । एवंविधेनापि श्रुतेन यममुनिरेवंविधोऽभूद्विशिष्टश्रुतेनान्यः किं न स्यादिति ॥ ३ ॥
[२१-२२] मायाकर्णनधीरपीह वचने श्रीसूर्यमित्रो द्विजो
जैनेन्द्रे गुणवर्धने च समदो भूपेन्द्रवन्धः सदा । अर्थात् तुम्हें हमसे भय नहीं है, किन्तु दीर्घसे -लंबे सर्पसे-भय दिखता है।
इन तीन श्लोकोंके द्वारा स्वाध्याय एवं वन्दना आदि कर्मको करनेवाला वह यम मुनि विहार करते हुए धर्म नगरके उद्यानमें आकर कायोत्सर्गसे स्थित हुआ। उसे सुनकर दीर्घ मंत्री
और राजकुमार गर्दभको उससे भय हुआ। इसीलिये वे दोनों रात्रिमें उसके मारनेके लिये गये । दीर्घ मंत्री उसके पीछे स्थित होकर उसे मारनेके लिये बार बार तलवारको खींच रहा था। परन्तु व्रतीके वधसे भयभीत होकर वह उसकी हत्या नहीं कर रहा था । उधर गर्दभकी भी वही अवस्था हो रही थी। इसी समय मुनिने स्वाध्यायको करते हुए उक्त खण्डश्लोकोंमें प्रथम खण्डश्लोकको पढ़ा। उसे सुनकर और उससे यह अभिप्राय निकालकर कि 'हे गर्दभ क्यों बार बार तलवार खींचता है और रखता है' गर्दभने दीर्घसे कहा कि मुनिने हम दोनोंको पहिचान लिया है। तत्पश्चात् मुनिने दूसरे खण्डश्लोकको पढ़ा। उसे सुनकर और उससे यह भाव निकालकर कि 'अन्यत्र क्या देखते हो, कोणिका तो तलघरमें स्थित है' गर्दभ बोला कि हे दीर्घ ! मुनि राज्यके लिये नहीं आये हैं, किन्तु कोणिकासे कुछ कहनेके लिये आये हैं । फिर उसने तीसरे खण्डश्लोकको पढ़ा। उसे सुनकर और उसका यह अभिप्राय निकालकर कि 'तुझे हमसे भय नहीं, किन्तु दीर्घ मंत्रीसे भय है' गर्दभने सोचा कि यह दुष्ट दीर्घ मुझे मारना चाहता है। मुनि स्नेहवश मुझे प्रबुद्ध करनेके लिये आये हैं । इससे वे दोनों ही मुनिको नमस्कार करके और उनसे धर्मश्रवण करके श्रावक हो गये । यम मुनि भी अत्यन्त विरक्त हो जानेसे विशिष्ट चारित्रके साथ यथार्थ मुनिस्वरूपको प्राप्त होकर सात ऋद्धियोंके धारक हुए । अन्तमें उन्होंने मोक्ष पदको भी प्राप्त किया। इस प्रकारके श्रुतसे भी जब यम मुनि सात ऋद्धियों के धारक होकर मुक्तिको प्राप्त हुए हैं तब दूसरा विशिष्ट श्रुतका धारक क्या न होगा ? वह तो अनेकानेक ऋद्धियोंका धारक होकर मुक्त होगा ही ॥३॥
जो अभिमानी सूर्यमित्र ब्राह्मण यहाँ गुणोंको वृद्धिंगत करनेवाले जिनेन्द्रके वचन (आगम ) के सुनने में केवल मायाचारसे ही प्रवृत्त हुआ था वह भी उसके प्रभावसे कर्मसे रहित १. फ लक्षितो। २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । श भूपेन्द्रवन्धं ।
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