Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुण्याकाशम्
[ ३-४, २१-२२ :
तद्रव्यं दत्वा तं दर्शयामास । तेन राज्ञः समर्पितः । राज्ञा इयं शास्तिर्निरूपितास्येति श्रुत्वा नागश्रियावादि 'यद्येवं मया दत्तग्रहणस्य निवृत्तिः कृता, सा कथं त्यज्यते' इति । सोsवोचत् 'इदमपि तिष्टतु ॥३॥
श्रन्यद्वयं' समर्प्य याव एहीत्य गमनेऽन्यस्मिन् प्रदेशे छिन्ननासिकां पुरुषशीर्षबद्धकण्ठां नारीं वीक्ष्य नागश्रीः पितरं पप्रच्छ किमितीयमिमामवस्था प्रापितेति । स आहात्रैव चम्पायां मत्स्यो नाम वैश्यो भार्या जैनी, पुत्रौ नन्दसुनन्दौ । जैनी भ्राता सूरसेनस्तस्य पुत्री मदालनामासीत्तदा नन्दो द्वीपान्तरं गच्छन् मातुलं प्रत्यवदत् - हे माम, अहं द्वीपान्तरं यास्यामि । त्वत्पुत्री मह्यमेव दातव्या, अन्यस्मै दास्यसि चेद्राजाज्ञा । सूरसेनो व्रते कालावधि कुर्विति । स द्वादशवर्षाण्यवधिं कृत्वा जगाम । अवधेरुपरि षण्मासेषु गतेषु सा कन्या सुनन्दाय दत्ता । उभयगृहे विवाहमण्डपादिकं कृतं पञ्चरात्रे लग्ने स्थिते आगतो नन्दो वृत्तान्तं विवेद | तदन्वभाषत मात्रे दत्तेति मत्पुत्री सेति । सुनन्दस्तदाज्ञां दत्त्वा मज्ज्येष्ठो गत इति विबुध्य मन्माता इत्युक्तवान् । सा स्वगृहे कन्यैव स्थिता । तन्निकटगृहे नागचन्द्रनामा वणिक द्वादशकोटिद्रव्येश्वरो द्वादशवनितापतिः । सोऽनया कन्यया गच्छतीति दिया । राजाने इसे इस प्रकारका दण्ड सुनाया है। इस घटनाको सुनकर नागश्री बोली कि यदि ऐसा है तो मैंने उस चोरीका परित्याग किया है, उसको भला किस प्रकार से छोड़ें ? तब नागशर्मा ने कहा कि अच्छा इसे भी रहने दे, शेष दोको चलकर वापिस कर आते हैं || ३ || आगे जानेपर नागश्रीने एक ऐसी स्त्रीको देखा कि जिसकी नाक कटी हुई थी तथा गला एक पुरुषके शिरसे बँधा हुआ था । उसे देखकर नागश्रीने पितासे पूछा कि इस स्त्रीकी यह दुर्दशा क्यों हुई है ? वह बोला- इसी चम्पापुर में एक मत्स्य नामका वैश्य रहता है । उसकी पत्नीका नाम जैनी है | इनके नन्द और सुनन्द नामके दो पुत्र हैं । जैनीके भाई का नाम सूरसेन है । उसके मदालि नामकी पुत्री थी । उस समय नन्द किसी दूसरे द्वीपको जा रहा था । उसने वहाँ जाते समय मामासे कहा कि मैं दूसरे द्वीपको जा रहा हूँ । तुम अपनी पुत्रीको मेरे लिए ही देना । यदि तुम उसे किसी दूसरेके लिए दोगे तो राजकीय नियम के अनुसार दण्ड भोगना पड़ेगा । इसपर सूरसेनने उससे कुछ कालमर्यादा करने को कहा । तदनुसार वह बारह वर्षी मर्यादा करके द्वीपान्तरको चला गया । तत्पश्चात् बारह वर्षके बाद छह महीने और अधिक बीत गये, परन्तु वह वापिस नहीं आया । तब वह कन्या सुनन्दके लिये दे दी गई । इस विवाह के निमित्त दोनोंके घरपर मण्डप आदिका निर्माण हो चुका था। अब विवाह - विधिके सम्पन्न होने में केवल पाँच दिन ही शेष रहे थे । इस बीच वह नन्द भी वापिस आ गया । नन्दको जब यह समाचार विदित हुआ तब उसने कहा कि यह कन्या चूँकि मेरे अनुजके लिए दी जा चुकी है, अतएव वह अब मेरे लिये पुत्री के समान है । इधर सुनन्दको जब यह ज्ञात हुआ कि मेरा बड़ा भाई इस कन्या के निमित्त मामाको आज्ञा देकर द्वीपान्तरको गया था तब उसने कहा कि उस अवस्था में तो वह मेरे लिए माता के समान है । इस प्रकारसे जब उन दोनोंने ही उस कन्या के साथ विवाह करना स्वीकार नहीं किया तब उसे अविवाहित अवस्थामें अपने घरपर ही रहना पड़ा । उसके पड़ोसमें एक नागचन्द्र नामका वैश्य रहता था जो बारह करोड़ प्रमाण द्रव्या स्वामी था । उसके बारह स्त्रियाँ थीं । वह इस कन्या के पास जाता आता था । जब उन दोनोंके
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१ ब अन्यतद्द्वयं । २. श स्थितो ।
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