Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुण्यास्रवकथाकोशम्
[२-१११ जातौ तथैव युद्धे च सुदत्तचरमर्कटो मृतः। इतरः कण्ठगतासुर्यावदास्ते तावत्सुरगुरु-देवगुरुचारणाभ्यां दृष्टः । तदनु तत्प्रतिपादितपञ्चनमस्कारफलेन सौधर्मे चित्राङ्गदनामा देवो जातः। ततः काञ्चीपुरेशाजितसेनसुभद्रयोः समुद्र दत्तो नाम पुत्रो जातः । तदनु तपसाहमिन्द्रः। ततः पौदनपुरेशंसुस्थिर-लक्ष्मणयोः सुप्रतिष्ठोऽहं जातः । इतरश्चिरं भ्रमित्वा सिन्धुतटेतापसमृगायणविशालयोर्गोतमो भूत्वा पञ्चाग्न्यादितपसा ज्योतिर्लोके सुदर्शनो जातः । वापि गच्छतो ममोपरि विमानागतेः कृतोपसर्ग इति प्रतिपादनानन्तरं सुदर्शनः सम्यक्त्वं जग्राह । पञ्चनमस्कारतो मर्कटोऽप्येवंविधोऽभूदित्येतत्फलं किं वर्ण्यते ॥२॥
नृपालपुत्री व्यजनिष्ट वल्लभा शचीपतेर्धातुजरादिवर्जिता। सुलोचनापादितपश्चसत्पदा
ततो वयं पञ्चपदेष्वधिष्ठिताः ॥३॥ अस्य कथा-वाराणस्यां राजा अकम्पनो राशी सुप्रभा पुत्री सुलोचनातिजैनी सर्वकलाकुशला सुखेनास्ते यावत्तावद्विन्ध्यपुरे अकम्पनस्य सखा राजा विन्ध्यकीर्तिर्जाया समान ही लड़कर मृत्युको प्राप्त हुए। तत्पश्चात् वे सम्मेदपर्वतपर बन्दर हुए। पहिलेके ही समान उन्होंने फिर भी आपसमें युद्ध किया। इस युद्ध में सुदत्तका जीव जो बन्दर हुआ था वह तो तत्काल मर गया। परन्तु दूसरा ( सूरदत्तका जीव) मरणासन्न था। उसे इस मरणोन्मुख अवस्थामें देखकर सुरगुरु और देवगुरु नामके चारण ऋषियोंने पंचनमस्कार मंत्र सुनाया । उसके प्रभावसे वह मरकर सौधर्म स्वर्गमें चित्रांगद नामका देव उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् वहाँ से च्युत होकर वह कांचीपुरके राजा अजितसेन और रानी सुभद्राके समुद्रदत्त नामका पुत्र हुआ। फिर वह तपके प्रभावसे अहमिन्द्र हुआ। पश्चात् वहाँ से च्युत होकर पौदनपुरके राजा सुस्थिर और रानी लक्ष्मणाके मैं सुप्रतिष्ठित नामका पुत्र हुआ हूँ। दूसरा ( सुदत्तका जीव ) चिर काल तक परिभ्रमण करके सिन्धु नदीके किनारेपर तापस मृगायण और विशालाके गौतम नामका पुत्र हुआ था जो पंचाग्नि तपके प्रभावसे ज्योतिर्लोकमें सुदर्शन देव हुआ है। वह कहींपर जा रहा था। उसका विमान जब मेरे ऊपर आकर रुक गया तब उसने वह उपसर्ग किया है। इस प्रकार केवलीके द्वारा प्रतिपादन करनेपर उस सुदर्शन यक्षने सम्यग्दर्शनको ग्रहण कर लिया। जब उस पंचनमस्कार मंत्रके प्रभावसे बन्दर भी इस प्रकारकी विभूतिको प्राप्त हुआ है तब भला उसके फल का वर्णन कहाँ तक किया जा सकता है ? उसका फल अनिर्वचनीय है ॥२॥
राजा विन्ध्यकीर्तिकी पुत्री विजयश्री सुलोचनाके द्वारा सुनाये गये पंचनमस्कार मंत्रके प्रभावसे सप्त धातुओं एवं जरा आदिसे रहित इन्द्रकी प्रियतमा (इन्द्राणी) हुई थी । इसीलिए हम उस पंचनमस्कार मंत्रमें अधिष्ठित होते हैं।
इसकी कथा इस प्रकार है- वाराणसी नगरीमें अकम्पन नामक राजा राज्य करता था। उसकी पत्नीका नाम सुप्रभा था। उनके सुलोचना नामकी पुत्री थी जो अतिशय जिनभक्त एवं समस्त कलाओंमें कुशल होकर सुखसे स्थित थी। इधर विन्ध्यपुरमें अकम्पनका एक मित्र विन्ध्यकीर्ति
१ ब 'च' नास्ति । २. फ दृष्टः सुरदत्तचरः । तदनु। ३. प श पुरेश्वरः' ब पुरेशुर । ४. श लक्षणयोः । ५. फ अतोऽग्रे 'सुदर्शनो जातः' पर्यन्तः पाठस्त्रुटितो जातः ! ६. फ विमानगते, श विमानगतेः । ७. श इति पादनानंतरं ।
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