Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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: २-८, १६ ]
२. पवनमस्कारमन्त्रफलम् ८
अस्य कथा । तथा हि- उज्जयिनीनगर्यो राजा धनपालो राशी धनमती । वसन्तोत्सवे तस्या राश्या दिव्यं हारमवलोक्य वसन्तसेनागणिकया चिन्तितं किमनेन विना जीवितेनेति गृहे गत्वा शय्यायां पतित्वा स्थिता सा । रात्रौ दृढसूर्यचौरेणागत्य पृष्टा 'किं प्रिये, रुष्टासि' । तयोक्तं- तव न रुष्टा । किंतु यदि राशीहारं मे ददासि तदा जीवामि नान्यथेति । तां समुद्धीर्य रात्रौ हारं चोरयित्वा निर्गतो हारोद्योतेन यमपाशकोट्टपालेन धृतो राजवचनेन शूले प्रोत्तः । प्रभाते धनदत्तश्रेष्ठी चैत्यालये गच्छन् तेन भणितो दयालुस्त्वं तृषितस्य मे जलपानं देहि । तस्योपकारमिच्छता भणितं श्रेष्टिना द्वादशवर्षेरद्य मे गुरुणा महाविद्या दत्ता । जलमानयतः सा मे विस्मरति । यद्यागतस्य तां मे कथयसि तदा आनयामि जलम् । तेनोक्तमेवं करोमि । ततः श्रेष्ठी पञ्चनमस्कारांस्तस्य कथयित्वा गतः । दृढसूर्यस्तानुच्चारयन् मृत्वा च सौधर्मे देवो जातः । हेरिकै' राज्ञः कथितं देव, धनदत्तश्रेष्ठी चौरसमीपं गत्वा किंचिन्मन्त्रितवान् । श्रेष्ठिगृहे तस्य द्रव्यं तिष्ठतीति पर्यालोच्य राज्ञा श्रेष्ठधरणकं गृहरक्षणं चाज्ञातम् । तेन देवेनागत्य प्रातिहार्य करणार्थे श्रेष्ठि
इसकी कथा - उज्जयिनी नगरीमें राजा धनपाल राज्य करता था । उसकी पत्नीका नाम धनमती था । किसी दिन वसन्तसेना वेश्याने वसन्तोत्सव के अवसरपर उस रानीके दिव्य हारको देखकर यह विचार किया कि इसके बिना जीना व्यर्थ है । इस प्रकारसे दुखी होकर वह घर वापिस पहुँची और शय्या के ऊपर पड़ गई । रात्रिमें जब दृढ़सूर्य चोर उसके पास आया तब उसने उसे खिन्न देखकर पूछा कि हे प्रिये ! तुम क्या मेरे ऊपर रुष्ट हो गई हो ? तब उसने कहा कि मैं तुम्हारे ऊपर रुष्ट नहीं हुई हूँ । किन्तु मैं रानीके दिव्य हारको देखकर उसकी प्राप्तिके लिए व्याकुल हो उठी हूँ । यदि तुम उस हारको लाकर मुझे देते हो तो मैं जीवित रह सकती हूँ, अन्यथा नहीं। यह सुनकर दृढ़सूर्य उसे आश्वासन देकर उस हार को चुराने के लिए गया । वह उस हारको चुराकर वापिस आ ही रहा था कि हारके प्रकाशमें उसे यमपाश कोतबालने देखकर पकड़ लिया । तत्पश्चात् वह राजाकी आज्ञानुसार शूली पर चढ़ा दिया गया । वह मरनेवाला ही था कि उसे प्रभात समय में वहाँ से चैत्यालयको जाते हुए धनदत्त सेठ दिखा । तब उसने धनदत्तसे कहा कि हे दयालु ! मैं प्यास से अतिशय पीड़ित हूँ । कृपाकर मुझे जल दीजिए | उसकी उस मरणासन्न अवस्थाको देखकर सेठने उसके हितकी इच्छा से कहा कि मेरे गुरुने मुझे बारह वर्षोंमें आज ही एक महामंत्र दिया है । यदि मैं जल लेने के लिए जाता हूँ तो उसे भूल जाऊँगा । हाँ, यदि तुम मेरे वापिस आने तक उसका उच्चारण करते रहो और तब मुझे कह दो तो मैं जल लेनेके लिए जाता हूँ । तब चोरने कहा कि मैं तब तक उसका उच्चारण करता रहूँगा । तत्पश्चात् सेठ उसे पंचनमस्कार मंत्र के पदोंको कहकर चला गया । इधर दृढ़सूर्य उक्त मंत्र के पदोंका उच्चारण करते हुए मरणको प्राप्त होकर सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ । उस समय चोर के पास धनदत्त सेठको कुछ कहते हुए देखकर गुप्तचरोंने राजासे निवेदन किया कि हे देव ! धनदत्त सेठ चोरके पास जाकर कुछ मन्त्रणा कर रहा था । यह समाचार पाकर राजाको सन्देह हुआ कि सेठके घरमें दृढ़सूर्यके द्वारा चुराया हुआ द्रव्य विद्यमान है । इसीलिए उसने राजपुरुषोंको सेठके पकड़ लाने और उसके घरपर पहरा देनेकी आज्ञा दी । तब उपर्युक्त देव
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१. प ब ' राज्या' नास्ति । २. श दृढसूर्यपुरचौरेणा । ३. श हैरिकै । ४. फ चाज्ञाते तेन देवें
श चाज्ञातं ने देवें ।
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