Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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gorate कोम्
[ २-६, १७ :
मुनिरजानन् स्थितोऽन्तः प्रवेश्यावरकान्त उपवेशितः । देवदत्तया भणितम्- हे सुन्दर, त्वमद्यापि युवा, किं ते तपसा मयोपार्जितं बहुद्रव्यमस्ति, तेन सार्धं मां भुधि । मुनिरुवाच - हे मुग्धे, शरीरमिदमशुचि दुःखपुञ्ज त्रिदोषाधिष्ठितं कृमिकुलपरिपूर्ण विनश्वरम् । ततो नोचितं भोगोपभोगानुभवनाय परत्र सिद्धावेवासहायं ततस्तपो विधीयत इति । देवदत्तया पश्चात्तत् कुर्विति भणित्वोत्थाप्य तूलिकायां निक्षिप्तः । तदा स उपसर्गनिवृत्तावाहारादौ प्रवृत्तिरिति गृहीत संन्यासस्तथा नगराद्यप्रवेशप्रतिज्ञोऽप्यभूत् । त्रीणि दिनानि नानास्त्रीविकारैस्तयोपसर्गे कृते ऽप्यकम्पचित्तोऽस्थाद्यदा तदा रात्रौ पितृवने कायोत्सर्गेण स्थापयामास । यावत्तदा स तत्र तिष्ठति तावत्सा व्यन्तरी विमानेन गगने गच्छती विमानस्खलनात्तं लुलोके । विबुध्य अवदत्-रे सुदर्शन, तवार्त्तनाभयमती मृत्वाहं जाता । त्वं तदा केनचिद्देवेन रक्षितोऽसि, इदानीं त्वां को रक्षतीति विजल्प्य नानोपसर्गस्तस्य कर्तुं प्रारब्धः । तदा सं तेनैव यक्षेण निवारितः । सा तेनैव सह युद्धं चकार, सप्तमदिने पलायिता । इतः स मुनिदेवदत्ताने अपनी प्रतिज्ञाका स्मरण करके दासीके द्वारा मुनिका पडिगाहन कराया । मुनिको उनके कपटका ज्ञान नहीं था । इसीलिए वे वहाँ स्थित हो गये । फिर उसने उन्हें भीतर ले जाकर शयनागार में बैठाया । तत्पश्चात् देवदत्ताने उनसे कहा कि हे सुभग ! तुम अभी तरुण हो, तुम्हें अभी इस तपसे क्या लाभ है ? मैंने बहुत-सा धन कमाया है । तुम उसको लेकर मेरे साथ भोगोंका अनुभव करो । यह सुनकर मुनिने कहा कि हे सुन्दरी ! (अथवा हे मूर्खे ! ) यह शरीर अपवित्र, दुःखों का घर, त्रिदोष (वात, पित्त और कफ ) से सहित, कीड़ोंसे परिपूर्ण और नश्वर है । इसलिए उसे भोगोपभोगजनित सुखका साधन बनाना उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा करने से वह परलोक के सुखमय बनाने में सहायक नहीं होता है, बल्कि वह उसे दुखमय ही बनाता है । अतएव उस परलोककी सिद्धि ( मोक्षप्राप्ति ) के लिए इस दुर्लभ मनुष्य-शरीरको तपश्चरणमें प्रवृत्त करना सर्वथा योग्य है । इस प्रकारसे वह परलोककी सिद्धिमें अवश्य सहायक होता है । मुनिके इस सदुपदेशको देवदत्ताने हृदयंगम नहीं किया । किन्तु इसके विपरीत उसने 'तुम तपको छोड़कर मेरे साथ विषयभोग करो' यह कहते हुए उन्हें उठाकर शय्याके ऊपर रख लिया । तब मुनिने इस उपसर्गके दूर होनेपर ही मैं आहारादिमें प्रवृत्त होऊँगा, इस प्रकार सन्यासको ग्रहण कर लिया । साथ ही उन्होंने यह भी प्रतिज्ञा कर ली कि अबसे मैं नगरादिमें प्रवेश नहीं करूँगा । इस प्रकार देवदत्ताने अनेक प्रकारके कामोद्दीपक स्त्रीविकारों को करके मुनिके ऊपर तीन दिन उपसर्ग किया । फिर भी जब उनका चित्त चलायमान नहीं हुआ तब उसने उन्हें रात के समय स्मशान में कायोत्सर्गसे स्थित करा दिया । तब वे मुनि वहाँ कायोत्सर्ग से स्थित ही थे कि इतने में विमानसे आकाशमें जाती हुई उस व्यन्तरीने अकस्मात् अपने विमानके रुक जाने से उनकी ओर देखा । देखते ही उसे यह ज्ञात हो गया कि यह वही सुदर्शन सेठ है । तब उसने उनसे कहा कि हे सुदर्शन ! तेरे कारण आर्तध्यानसे मरकर वह अभयमती मैं (व्यन्तरी) हुई हूँ । उस समय तो किसी देवने तेरी रक्षा की थी, अब देखती हूँ कि तेरी रक्षा कौन करता है । इस प्रकार कहते हुए उसने मुनिराजके ऊपर अनेक प्रकारसे घोर उपसर्ग करना प्रारम्भ कर दिया । उस समय इस उपसर्ग को भी उसी यक्षने निवारित किया । तब वह उसी यक्षके साथ
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९. ब भुनक्ति । २. प ब श पुंजस्त्रिदोषा० । ३ ब सिद्धावेव सहायं ।
५. शब्नात्तां । ६. श सा । ७. ब स एव यक्षो निवारितवान् ।
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४. फ यावत्तावत्तदा ।
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