Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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: २-५, १३ ]
२. पञ्चनमस्कारमन्त्रफलम् ४-५
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वास्ते । तैर्निरूपिते तत्र गतः । तदवस्थां दृष्ट्वा मातृ-भार्ये दुःखिते बभूवतुः । कृतस्नानो मातुलेन भणितो 'मदीयं द्रव्यं षोडशकोटिस्तिष्ठति तद् गृहीत्वा व्यवहर । तेनाभाणि । देशान्तरे व्यवहारप्रवृत्तिरिति निर्गतः, मोहात् सिद्धार्थोऽपि । गच्छन्तावलकादेशे' सीमावतीनदीतट्यां मूलिकां गृहीत्वा स्वयमेव मस्तकेन पलाशपुरे वृषभध्वजस्य गृहकोणे स्थित्वा विक्रीय उत्पन्नद्रव्येण कर्पासं संगृह्य बलीवर्दान् पूरयित्वा कंजकनामनायकेन सह गच्छतः । किरातैर्बलीवर्दा गृहीताः कर्णासश्च दग्धः । मलयगिरौ रत्नान्युपायगमनसमये भिल्लैर्गृहीतानि । अनु प्रियङ्गुत्रे लापत्तनं गतौ भानोर्मित्रेण सुरेन्द्रदत्तेन द्रोपान्तरं नीतौ । द्वादशाब्दैर्बहुद्रव्येणागमने स्फुटितं जलयानपात्रम् । प्रमादफलकेन निर्गतौ चारुदत्तसिद्धार्थो । चारुदत्तस्य शुद्धिमजानन् सिद्धार्थः स्वपुरं गतः । चारुदत्त उदुम्बरावतीग्रामे सिद्धार्थशुद्धि प्राप्तः । अनन्तरं सिन्धुदेशे संवरिग्रामे पितुरष्टादशकोटिद्रव्यं स्थितम् । तद् गृहीत्वा जीर्णोद्धारपूजाद्यर्थं दत्तम् । गुणाकर्ण्य परीक्षणार्थं वीरप्रभयक्षो मनुष्यवेषेण वसतौ क[क्व] णन् स्थितः । देवं द्रष्टुमागतचारुदत्तेन' भणितं किमर्थं क[क्व]णसि । रखा हुआ है। तब उसने पूछा कि तो मेरी माता कहाँपर रहती है ? इस प्रकार उनसे माता के स्थानको ज्ञातकर वह वहाँ गया । उसकी इस दयनीय अवस्थाको देखकर माता और पत्नीको बहुत दुःख हुआ । तत्पश्चात् स्नान आदि कर लेनेपर चारुदत्त के मामाने उससे कहा कि मेरे पास सोलह करोड़ प्रमाण द्रव्य है, उसको लेकर तू व्यवहार कर । इसके उत्तर में वह 'मैं देशान्तर में जाकर व्यवसाय करूँगा' यह कहते हुए देशान्तरको चला गया। तब मोहवश सिद्धार्थ भी उसके साथ गया । इस प्रकार जाते हुए उन दोनोंने अलका देशस्थ सीमावती नदी के किनारे से लकड़ियोंके गट्टोंको लिया और उन्हें स्वयं ही शिरके ऊपर रखकर पलाशपुरमें पहुँचे। उन्होंने वहाँ वृषभध्वज सेठके घरके एक कोने में स्थित होकर उनको बेच दिया । इससे जो द्रव्य मिला उससे उन्होंने कपासका संग्रह किया । फिर वे उसे बैलोंके ऊपर रखकर कंजक नामक नायकके साथ आगे गये । मार्गमें भीलोंने उनके बैलोंको छीनकर कपासको जला दिया । पश्चात् उन दोनोंने मलय पर्वत के ऊपर पहुँचकर रत्नोंको प्राप्त किया । आते समय भीलोंने उनके इन रत्नों को भी छीन लिया । फिर वे प्रियंगुवेला पत्तनको गये । वहाँ से उन्हें भानु ( चारुदत्तका पिता ) का मित्र सुरेन्द्रदत्त द्वीपान्तर में ले गया । वहाँ से बारह वर्षोंमें जब वे बहुत-से धनके साथ वापिस आ रहे थे तब मार्ग में उनका जहाज नष्ट हो गया । तब चारुदत्त और सिद्धार्थ दोनों लकड़ीके पटियेका सहारा लेकर समुद्र बाहिर निकले । तत्पश्चात् सिद्धार्थको चारुदत्तका पता न लगनेसे वह अपने नगरको वापिस चला गया। इधर जब चारुदत्त उदुम्बरावती गाँवमें पहुँचा तब उसे सिद्धार्थका वृत्तान्त मालूम हुआ ।
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पश्चात् चारुदत्त सिन्धु देशके अन्तर्गत संवरिग्राममें गया । वहाँ उसके पिताका जो अठारह करोड़ प्रमाण द्रव्य स्थित था उसे लेकर उसने जीर्णोद्धार और पूजा आदिके निमित्त अर्पित कर दिया । उसके दानगुणको सुनकर वीरप्रभ यक्ष परीक्षा करनेके लिये मनुष्यके वेषमें आया और करुणाक्रन्दन करते हुए जिनालय में स्थित हो गया। उस समय चारुदत्त वहाँ देवदर्शन के लिये
१. ब - प्रतिपाठोऽयम् । श कोटितिष्ठति । २. फ व्यवहरः । ३. श तेन । ४. ब- प्रतिपाठोऽयम् । पश • वलोकदेशे, फव्वालोकदेशे, शब्वलोकादेशे । ५. प श तद्या मूलिकां फ तटया मूलिकां । ऽयम् । पफश गृह्य । ७. पश दग्धा । ८. प श मलया गिरो । ९. ब० न्युपाय गमन । ११. ब- प्रतिपाठोऽयम् । श०मागतः चारुदत्तेन ।
६. ब- प्रतिपाठो१०. प कर्णन् ।
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