Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
पुण्यावकथाकोशम्
[ २-५, १३ :
भाणीद्र सकूपमध्यवर्तिने मह्यं दत्तपश्चनमस्कारफलेनाहमपि तत्रैव जातः इत्युभयोरप्ययमेव गुरुः । कृतोपकार स्मरणार्थ प्रथमतोऽस्य नमस्कार इति । तथा चोक्तम्
or
अक्षरस्यापि चैकस्य पदार्धस्य पदस्य वा । दातारं विस्मरन् पापी किं पुनर्धर्मदेशिनम् ॥२॥ इति
ततश्चारुदत्तादेशेन देवाभ्यां रुद्रदत्तादय आनीतास्ततो देवाभ्यां भणितं यावदिष्टं तावद् द्रव्यं दास्यावः । यामश्वम्पाम् । तौ निवार्य सिंहग्रीवेण स्वपुरं नीतः, तत्रानेकविद्याः साधितवान् । द्वात्रिंशद्वियच्चरकन्याः परिणीताः । ततः सिंहग्रीवेणोक्तं मत्पुत्री गन्धर्वसेना 'यो वीणावाद्येन मां जयति स भर्ता' इति कृतप्रतिज्ञा, स्वपुरं नीत्वा वीणाप्रवीणाय भूपाय प्रयच्छेति समर्पिता । ततश्चारुदत्तोऽनूनद्रव्येणं सिंहग्रीवादिखगैः स्ववनिताभी रुद्रदत्तादिभिश्च स्वपुरमागतः । स्वावासो मोचितः । वसन्ततिलका 'चारुदत्तस्य गतिर्मे गतिः' इति प्रतिज्ञया स्थिता' | सापि प्रिया बभूव इति । चारुदत्तो बहुकालं सुखमनुभूय केनचि
दूसरा देव भी बोला कि मैं रसकूपके मध्य में पड़कर जब मरणासन्न था तब चारुदत्तने मुझे पञ्चमस्कार मन्त्र दिया था । उसके प्रभावसे मैं भी उसी सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ हूँ । इस प्रकार से हम दोनोंका ही यह गुरु है । इसीलिए हम दोनोंने इसके द्वारा किये गये उस महान् उपकारके स्मरणार्थ पहिले उसे नमस्कार किया है । कहा भी है
जो जीव एक अक्षर, आधे पद अथवा पूरे एक पदके प्रदान करनेवाले. गुरुको भूल जाता है— उसके उपकारको नहीं मानता है— पह पापी है। फिर भला ज े धर्मोपदेशक गुरुको भूलता है उसके विषयमें क्या कहा जाय ? वह तो अतिशय पापी होगा ही ॥२॥
तत्पश्चात् वे दोनों देव चारुदत्तकी आज्ञासे रुद्रदत्त आदिको ले आये । फिर उन दोनोंने कहा कि जितना द्रव्य आपको अभीष्ट हो उतना द्रव्य हम देवेंगे । चलिये हमलोग चम्पापुर चलें | तब सिंहग्रीव उन दोनों देवोंको रोककर चारुदत्तको अपने पुरमें ले गया । वहाँ उसने अनेक विद्याओंको सिद्ध करके बत्तीस विद्याधर कन्याओंके साथ विवाह किया। तत्पश्चात् सिंहग्रीने चारुदत्तसे कहा कि मेरे गन्धर्वसेना नामकी एक पुत्री है। उसने यह प्रतिज्ञा की है कि जो पुरुष मुझे बीणा बजानेमें जीत लेगा वह मेरा पति होगा । अत एव आप इसे अपने नगरमें ले जाकर जो राजा बीणावादनमें प्रवीण हो उसे दे दें। यह कहकर सिंहग्रीवने उसे चारुदत्त के लिए समर्पित कर दिया । तत्पश्चात् चारुदत्त बहुत द्रव्यको लेकर सिंहग्रीवादि विद्याधरों, अपनी पत्नियों और रुद्रदत्तादिकोंके साथ अपने नगर में वापिस आया । तब उसने अपने निवासभवनको, जो कि गहने रखा हुआ था, छुड़ा लिया । वसन्तमाला वेश्याकी पुत्री वसन्ततिलका, जिसने यह प्रतिज्ञा ले रक्खी थी कि जो अवस्था चारुदत्तकी होगी वही अवस्था मेरी भी होगी, उसे भी चारुदत्तने अपनी पत्नी के रूपमें स्वीकार कर लिया। इस प्रकार चारुदत्त ने बहुत समय तक सुखका अनुभव किया । पश्चात् उसने किसी निमित्तको पाकर बहुतों के साथ जिन
१. फ पदार्थस्य ( ह० पु० २१, १२६ ) । २. ब देशनं । ३. ब 'इति' नास्ति । ४. श मत्पुरी ।
५. फ 'दत्तस्तेन द्रव्येण । ६. फश वनिताभि । ७. श प्रतिज्ञायास्थिता ।
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org