Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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: २-१, ६ ]
२. पञ्चनमस्कारमन्त्रफलम् १
ददौ । मात्रा संबोधितोऽपि जैनमतं नाभ्युप गच्छति । तदा सा वर्धमानस्वामिसमवसरणे स्वभगिनीचन्दनार्यानिकटे दीक्षिता समाधिना दिवि देवो जातः । श्रभयकुमारादयो यथायोग्यां गतिं यः । एवं श्रेणिकः सप्तमावनौ बद्धायुरपि सकृजिनं विलोक्य पूजयित्वावाप्तसम्यक्त्वंप्रभावेन तीर्थकरत्वमु यद्यत्रैव भरते श्रादितीर्थंकरः स्यात्तदान्यो भव्यो दर्शनपूर्वकव्रतधारी जिनपूजकः किं त्रिलोकस्वामी न स्यात् । भ्राजिष्णोराराधना - कर्णाटटीकाकथितक्रमेणोल्लेख मात्रं कथितेयं कथा इति ॥ ८ ॥
भुक्त्वा स्वर्गसुखं हृषीकविषयं दीर्घं मनोवाञ्छितं भूत्वा तीर्थकरास्ततो नतसुराश्चकाधिपा भोगिनः । क्षीरोदामलकीर्तिबोधनिधयो मुक्तौ भजन्ते सुखं पूजाफलवर्णनाष्टकमिदं भव्याः पठन्त्यादरात् ॥ ॥ इति पुण्यास्रवाभिधानग्रन्थे केशवनन्दिदिव्यमुनि शिष्यरामचन्द्रमुमुक्षु विरचिते पूजाफलवर्णनाष्टकं समाप्तम् ॥१॥ [ ६ ] वृषो हि वैश्योदितपञ्चसत्पदः
सुखं स भुक्त्वा दिविजं नृलोकजम् । बभूव सुग्रीवसुनामधेयकस्ततो" वयं पञ्चपदेष्वधिष्ठिताः ॥ १ ॥
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स्वीकार नहीं किया तब चेलिनीने वर्धमान जिनेन्द्र के समवसरण में अपनी बहिन चन्दना आर्यिका के निकटमें दीक्षा धारण कर ली । वह समाधिपूर्वक शरीरको छोड़कर स्वर्ग में देव हुई । अभयकुमार आदि यथायोग्य गतिको प्राप्त हुए । इस प्रकारसे श्रेणिकने सातवें नरककी आयुको बाँध करके भी जब एक बार जिनेन्द्रका दर्शन व पूजन करके प्राप्त हुए सम्यक्त्वके प्रभावसे तीर्थङ्कर प्रकृतिको भी बाँध लिया और भविष्य में इसी भरत क्षेत्रके भीतर प्रथम तीर्थङ्कर होनेवाला है तब दूसरा कोई भव्य जीव यदि सम्यग्दर्शनके साथ व्रतोंको धारण करके जिनेन्द्रकी पूजा करता है तो वह क्या तीनों लोकोंका स्वामी न होगा ? अवश्य होगा । यह कथा भ्राजिष्णुकी आराधना कर्णाटक टीका में वर्णित क्रमके अनुसार उल्लेख मात्रसे कही गई है ।
जो भव्य जीव पूजाके फलको बतलानेवाले इस अष्टक ( आठ कथाओं) को पढ़ते हैं वे इच्छानुसार बहुत काल तक स्वर्ग सम्बन्धी इन्द्रिय-सुखको भोग करके तत्पश्चात् तीर्थकर होते हुए देवोंसे पूजित चक्रवर्तीके भी सुखको भोगते हैं और अन्तमें क्षीरसमुद्र के समान निर्मल कीर्ति एवं ज्ञानरूप निधि से संयुक्त होकर मोक्ष सुखको भोगते हैं ॥८॥
इस प्रकार केशवनन्दी दिव्य मुनिके शिष्य रामचन्द्र मुमुक्षु, विरचित पुण्यास्रव नामक ग्रन्थमें पूजाफलका बतलानेवाला अष्टक समाप्त हुआ ||१||
जो एक बैलकी पर्याय में अवस्थित था उसने सेठके द्वारा उच्चारित पंचनमस्कार मन्त्रको सुनकर स्वर्गलोक और मनुष्यलोकके सुखको भोगा । पश्चात् वह सुग्रीव नामका राजा हुआ । इसीलिए हम उस पंचनमस्कार मंत्र के विषय में दृढ़श्रद्धानी होते हैं ॥१॥
४. फ
१. फ गत्यं । २. पशु बद्धायुरिति । ३. फत्वा वाप सस्य सम्यक्त्वा, ब त्वा प्राप्तसम्यक्त्व | 'मुपाजग्रे, बमुपाग्रे, श मुपार्यो । ५ प भ्राजिप्लोराधना, ब भ्राजिष्लोराधना, श भाजिवोराधना । ६. श तीर्थकरस्ततो । ७. ब युक्ता । ८. फमिदं तत्पठदत्यादरात् । ९. सर्वास्वेव प्रतिषु 'पुण्याश्रवाभि' पाठोऽस्ति । १०. ब फलव्यावर्णना । ११. व धीयकस्ततो ।
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