Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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: १-८ ]
१. पूजाफलम् ८
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पन्नस्थादन्य आर्यिकारूपेण तेनाकृष्टमत्स्यान् करण्डके निक्षिपन् चासीत् । तथा तद्युगलं ददर्श राजा ननाम, जजल्प च 'किं विधीयते' इति । धर्मवृद्धयनन्तरं कृतकयतिरब्रवीदस्या गर्भसंभूतौ मत्स्यमांसवाञ्छाजनि, एतदर्थ मत्स्याकर्षणं विधीयते । भूयो बभाणैतेन वेषेण नोचितम् । मायावी भणदेवं प्रघट्टकोऽजनि, किं क्रियते । तथापि दिगम्बराणामनुचितम् । यतिरब्रवीत् - प्रघट्टकं प्राप्य सर्वेऽपि मादृशा एव । राज्ञाभाणि त्वं सद्दष्टिरपि न भवसि निकृष्टोऽसि । स बभाण-मया किमसत्यमुक्तं यावत्त्वं मां प्रत्येवं वदसि । परमयतीनां गालिप्रदानात्वमेव न जैनो वयं जैना एव । राजावदत्संवेगादिसम्यक्त्व लक्षणाभावात्कथं जैनोऽसि अप्रभावनाशीलत्वाच्च । किंतु यद्यनेन वेषेणैवं करिष्यसि त्वमेव जानासि । मायाविनोक्तं 'किं करिष्यसि । दर्शनोपटोल कारकत्वादिगम्बरो न भवसीति गर्दभारोहणं कारयिष्यामीति गृहमानीतौ । मन्त्रिणऊचुः - देव, एवंविधस्य नमस्कारकरणे दर्शनातिचारः किं न भवति । स भाणायं वेषधारी जैन इति मत्वा मयानामीति दर्शनातिचारो नास्ति, चारित्रातिचारो भवति यदि मे चारित्रं स्यादिति । तस्य दृढत्वदर्शनाद्धृष्टशै" सुरौ प्रकटीभूतां [भूतौ] तं
बैठ गया और दूसरा आर्यिका के रूपमें वहींपर स्थित होकर उसके द्वारा पकड़ी गई मछलियोंको टोकरी में भरने लगा । राजा श्रेणिकने उस अवस्था में स्थित उक्त युगलको देखकर नमस्कार किया । तत्पश्चात् उसने उनसे पूछा कि आप क्या कर रहे हैं ? उत्तर में धर्मवृद्धि देनेके पश्चात् वह कृत्रिम मुनि बोला कि इसके गर्भावस्था में मछलियोंके मांसकी इच्छा उत्पन्न हुई है । इसके लिए मैं मछलियोंको पकड़ रहा हूँ । श्रेणिकने तब फिरसे कहा कि इस वेषमें ऐसा कार्य करना उचित नहीं है । इसपर वह मायावी मुनि बोला कि प्रयोजन ही ऐसा उपस्थित हो गया है, मैं क्या करूँ ? तब श्रेणिक कहा कि फिर भी दिगम्बर साधुओं को ऐसा करना योग्य नहीं है । यह सुनकर मुनिने उत्तर दिया कि प्रयोजनको पाकर सब ही मेरे समान हो जाते हैं। इसपर राजा बोला कि तुम सम्यग्दृष्टि भी नहीं हो, निकृष्ट हो । वह बोला कि क्या मैंने असत्य कहा है जो तुम मेरे प्रति इस प्रकार कह रहे हो । उत्तम ऋषियों को गाली देनेके कारण तुम ही जैन नहीं हो, हम तो जैन ही हैं । राजा बोला कि जब तुममें सम्यग्दर्शन के लक्षणभूत संवेगादि भी नहीं हैं तब तुम कैसे जैन हो सकते हो। क्या कोई जैन इस वेषमें जैनधर्मकी अप्रभावना करा सकता ? यदि तुम मुनिके इस वेषमें इस प्रकारका अकार्य करोगे तो तुम ही जानो । तब मायावी देवने पूछा कि क्या करोगे ? सम्यग्दर्शनके विराधक होनेसे चूँकि तुम दिगम्बर नहीं हो सकते हो, इसीलिए मैं तुम्हारा गर्दभारोहण कराऊँगा । इस प्रकार कहकर श्रेणिक उन दोनोंको अपने घरपर ले आया । उस समय मन्त्रियोंने श्रेणिक से पूछा कि हे देव ! इस प्रकार के भ्रष्ट मुनिके लिए नमस्कार करने में क्या सम्यदर्शन सदोष नहीं होता है ? श्रेणिकने उत्तर दिया कि यह वेषधारी जैन है, यह समझ करके मैंने उसे नमस्कार किया है; इसलिए ऐसा करनेसे सम्यग्दर्शन सातिचार नहीं होता है। हाँ, यदि मुझमें चारित्र होता तो चारित्रका अतिचार अवश्य हो सकता था, सो वह है नहीं । इस प्रकारसे जब उक्त देवोंने श्रेणिककी दृढ़ताको देखा तब उन्होंने हर्षित होकर अपने यथार्थ स्वरूपको
१. प निक्षिपत्तस्थादन्य अर्जिका, श निक्षिप्पन्यस्थादन्यदर्जिका । २. फब यतिरवद् । ३. फ सर्वेऽप्य । ४. प श राजाभाणि, ब राज्ञाभणि । ५. फ यावत्ते । ६. फ वदसि मर्म परम । ७. फत्त्वामेव । ८. फ अतोऽग्रेऽग्रिम 'करिष्यसि पर्यन्तः पाठस्त्रुटितोऽस्ति । ९. प फ मया १०. प फ चारित्रं न स्यादिति । ११. पशदृढदर्शना । १२. ब प्रकटीव्यभूतां ।
ननामीति ।
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