Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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: १-८]
१. पूजाफलम् ८ ममार वानरोऽटव्यां जज्ञे । तत्र मुनिः पल्यङ्केन ध्याने स्थितस्तं स वानरस्तीक्षणकाष्ठेन जवायां विव्याध । तच्छरीरनिर्ममत्वं विलोक्योपशान्तिमितः काष्ठमुत्पाटयौषधेन निव्रणं चकार । वनकुसुमैः पूजयित्वोपसों गतं इति हस्तसंज्ञां व्यबोधि । ततस्तेन हस्तावुद्धतौ । कपिस्तं प्रणम्याणुव्रतान्याददौ इति । वैद्यस्याविचारितकरणं किमुचितम् । जिनदत्तोऽवदत् 'न' ।१२। अहं च कथयामीति श्रेष्ठिना भणिते कुबेरदत्तस्तं कलशं पितुरग्रेऽनिक्षिपदवद- एहि मुने, वने मे दीक्षां प्रयच्छेति ! उक्तं च
विजो तावससेट्टो वाणर बडुअो तहेव वणहत्थी।
अंबगसुंडगवसहो मुंगुस्सो चेव मणि साहू ॥३॥ इति ततः पिता वैराग्यमगमत् । उभौ दीक्षां प्रपन्नौ विहरन्तावासते । ते वयं मणिमालिनस्तदा कायगुप्तिन स्थितेति निशम्य राजा बेदकसदृष्टिरभूत् ।
कतिपयदिनैश्चेलिन्या गर्भसंभूताववाच्यो दोहलकोऽजनि । तदप्राप्तावति क्षीणशरीरां वनमें बन्दर उत्पन्न हुआ। उस वनमें उक्त मुनिराज पल्यङ्क आसनसे ध्यानमें स्थित थे । उनको देखकर बन्दरको जातिस्मरण हो गया। तब उसने मुनिकी जंघाको एक तीक्ष्ण लकड़ीके द्वारा विद्ध कर दिया। इतनेपर भी मुनिके हृदयमें किसी प्रकारका विकार उत्पन्न नहीं हुआ। शरीरके विषयमें उनकी इस प्रकारकी निर्ममत्व बुद्धि को देखकर उक्त बन्दरकी क्रोधवासना शान्त हो गई। तब उसने मुनिकी जंघामेंसे उस लकड़ीको निकाल लिया और औषधके प्रयोगसे उनके घावको भी ठीक कर दिया। फिर उसने वनके फूलोंसे मुनिकी पूजा करके हाथके संकेतसे यह जतलाया कि उपसर्ग नष्ट हो चुका है। तब मुनिराजने दोनों हाथोंको ऊपर उठाया। तत्पश्चात् बन्दरने उन्हें प्रणाम करके उनसे अणुव्रतोंको ग्रहण किया। इस प्रकारसे उस वैद्यको क्या ऐसा अविचारित कार्य करना योग्य था । जिनदत्तने कहा कि नहीं ॥१२॥
तत्पश्चात् 'मैं भी कहता हूँ', इस प्रकार जिनदत्त सेठ बोला ही था कि इतने में कुबेरदत्तने उस घड़ेको पिताके सामने रख दिया और उनसे बोला कि हे मुने! वनमें चलिए और मुझे दीक्षा दीजिए । कहा भी है
धनके लोभसे होनेवाले अनर्थके विषयमें वैद्य, तापस, सेठ, बन्दर, बटुक, वनका हाथी, आम्रफल, सुंडग, वृषभ, मुंगूस तथा मणि व साधु; इनके आख्यान कहे गये हैं ॥३॥
इससे पिताको भी वैराग्य उत्पन्न हुआ। तब उन दोनोंने दीक्षा ग्रहण कर ली और विहार करने लगे । वही मैं मणिमाली हूँ। वे ही हम विहार करते हुए यहाँ आये हैं। मुझमें कायगुप्ति स्थिति नहीं थी, इसीलिए हे श्रेणिक ! हम वहाँ नहीं रुके। इस सब वृत्तान्तको सुनकर राजा श्रेणिक वेदकसम्यग्दृष्टि हो गया ।
कुछ दिनोंके पश्चात् चेलिनीके गर्भ धारण करनेपर अनिर्वचनीय दोहल उत्पन्न हुआ। उसकी पूर्ति न हो सकनेसे चेलिनीका शरीर अतिशय कृश हो गया। उसको कृश देखकर श्रेणिकने
१. ५ मतः । २. प ब श विबोध, फ विधात् । ३. फ हस्ताबुधुतौ श हस्ताबुद्धतौ । ४. प फ ब 'च' नास्ति । ५. श 'कलशं' नास्ति । ६. फ निक्षिप्यावदच्च, ब क्षिपदवदच्च । ७. श मुंगस्सो। ८. प प्रपणौ । ९.प श वासते ते वयं, फबासते वयं, ब वासातौ ते वयं । १०. फस्तदैव कायगप्तिनं स्थितेति । ११. फ तदप्राप्तवानिति ।
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