Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुण्यावकथाकोशम्
[ १-८ :
राजा महाग्रहेण पृच्छत्तदावदद्देवी हे नाथ, ते वक्षःस्थलं विदार्य रुधिरास्वादने पापिष्ठाया वाञ्छा वर्तते इति चित्रमयस्वरूपे तद्वाञ्छां पूरितवान् राजा । सा पुत्रं लेभे । तन्मुखमवलोकनार्थं राजन्युपस्थिते बालस्तं वीक्ष्य बद्धभ्रुकुटिलोहिताक्षो दष्टाधरश्वासोत् स्वस्य दुःपरितिं चकार । राज्ञो रुष्ट इति देव्युद्यानेऽतित्यजद्राज्ञानीय धात्र्याः समर्पितः कुणिकनामा वर्धितुं लग्नः । क्रमेण वारिषेण हल्ल-विहल्ल- जितशत्रुनामानः पञ्च पुत्रा जनित । पष्टे गर्भे दोहलको जातः । कथम् । हस्तिनमारुह्य प्रावृषि सति भ्रमिष्यामीति । तदप्राप्त्या कृशदेहां नृपालोऽपृच्छत् । सा स्वरूपमवदत् । राजा ग्रीष्मे कथं वाञ्छां पूरयामीति सचिन्तो ऽवोभवीत् । अभयकुमारो वृष्ट्यादिकं करिष्यामीति प्रेषणं प्राप्य रात्रौ व्यन्तरादिकमवलोकयितुं श्मशानं जगाम । वटतलेऽनेकदीपप्रकाशे धूपधूमाकृष्टबहुव्यन्तरे सुगन्धिकुसुमैर्जपन्तं पुरुषमुद्विग्नमद्राक्षीत्, कस्त्वं किं जपसीति पृष्टवांश्च । स ह - विजयार्धोत्तरश्रेणी गगनवल्लभपुरेशो ऽहं पवन वेगो जिनालयवन्दनार्थं मन्दरमयाम् । तत्र वालकापुरेशविद्याधरश्चक्रवर्तितनुजा समायाता । तद्दर्शनेन शतखण्ड जातकामवाणमना श्रहं तामादाय दक्षिणमेतद्भरतस्योपरि गच्छन्
बहुत आग्रहसे इसका कारण पूछा। तब चेलिनीने कहा कि हे नाथ ! मुझ पापिष्ठाकी इच्छा तुम्हारे वक्षस्थलको विदीर्ण करके रक्तके पीने की है । यह सुनकर श्रेणिकने चित्रमय स्वरूपमें उसकी इच्छा को पूर्ण किया - अपने वक्षस्थलको चीरकर रक्तदान किया । समयानुसार उसने पुत्रको प्राप्त किया । उसके मुखको देखनेके लिए जब श्रेणिक वहाँ पहुँचा तब बालकने उसको देखकर भृकुटियों को कुटिल करते हुए लाल नेत्रों को करके अपने अधरोष्ठको काट लिया । इस प्रकार से उसने अपने शरीरकी दुष्टतापूर्ण प्रवृत्ति की । यह राजा के ऊपर रुष्ट है, ऐसा जानकर चेलिनीने उसे वनमें छोड़ दिया । परन्तु जब यह बात राजाको मालूम हुई तब उसने लाकर उसे धायको दे दिया । कुणिक नामको धारण करनेवाला वह बालक क्रमशः वृद्धिंगत होने लगा | तत्पश्चात् क्रमसे चेलिनीके वारिषेण, हल्ल, विहल्ल और जितशत्रु नामके पुत्र हुए; इस प्रकार उसके पाँच पुत्र हुए । छठी बार जब उसके गर्भ रहा तब उसे हाथीके ऊपर चढ़कर वर्षाकालमें घूमनेका दोहल उत्पन्न हुआ । इस दोहलकी पूर्ति न हो सकनेसे चेलिनीका शरीर कृश हो गया । देखकर श्रेणिकने उससे इसका कारण पूछा। तब उसने अपनी वह इच्छा प्रगट कर दी । यह जानकर राजा को बहुत चिन्ता हुई । कारण यह कि ग्रीष्म कालमें उसके उपर्युक्त दोहल (हाथीके ऊपर चढ़कर वर्षाकालमें विहार करना ) की पूर्ति करना कठिन था । तब अभय कुमार 'मैं वृष्टि आदिको करूँगा' यह कहते हुए राजाकी आज्ञा लेकर रात्रिमें व्यन्तरोंके अन्वेषणार्थ श्मशान में गया । वहाँ उसने वट वृक्षके नीचे अनेक दीपोंके प्रकाशमें बहुत पुष्पोंसे जप करते हुए किसी उद्विग्न पुरुषको देखा । उसके जपके समय वहाँ धूपके धुएँसे बहुत-से व्यन्तर आकृष्ट हुए थे । अभयकुमारने उससे पूछा कि तुम कौन हो और क्या जपते हो। वह बोला --- विजयार्ध पर्वतकी उत्तरश्रेणिमें गगनवल्लभ नामका एक नगर है । मैं उसका राजा हूँ । नाम मेरा पवनवेग है। मैं जिनालयों की वन्दना करनेके लिए मन्दर पर्वतपर गया था । उस समय वहाँ बालकापुरके स्वामी विद्याधर चक्रवर्ती की पुत्री आयी थी । उसके देखनेसे मेरा मन कामवाणसे विद्ध हो गया। इसी -
कृश
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१. फग्रहेण पृच्छंस्तदा शगृहेणाच्छन् तदा । २. फ बद्धभृकुटिलोहिताक्षी, शं वर्धभ्रुकुटिलहिताक्षो । ३. फराज्ञी रुष्टा इति देव्याने ( ब दिव्युद्यानंनि ) तत्यजद्राजानीय । ४. फ व निम्ना ५. फ नामानं । ६ प फ अजनिपतः ब अजनिपतं । ७. प मंदरमयत् तत्र फ मन्दरमयात्तत्र श मंदरमयं तत्र । ८. श विद्याधरश्चक्रवति । ९. श जातः ।
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