Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुण्यास्रवकथाकोशम्
राज्ञा किमिति न स्थिता इति देवी पृष्टा। सावदत्तानेव पृच्छावः', एहि तत्रेति। तत्र जग्मतुर्वन्दनानन्तरं राजा पृच्छति स्म धर्मघोषमुनिम् । स आह-अस्माकं मनोगुप्तिन स्थिता। कथमिति चेत् कलिङ्गदेशे दन्तिपुरे राजा धर्मघोषो देवी लक्ष्मीमती। स केनचिन्निमित्तेन दिगम्बरो भूत्वा कौशाम्ब्यां चर्यार्थ प्रविष्टो राजमन्त्रिगरुडस्य भार्यया स्थापितः । चर्याकरणावसरे हस्तात्सिक्थं भूमौ पतितम् । तदवलोकयन् तदङ्गुष्ठमद्राक्षीत् लक्ष्मीमत्या अङ्गुष्ठसम इति स्ववनितां सस्मारेत्यन्तरायं चकार । ते वयं कयाचिद्देवतयोक्तं । त्वद्देव्या त्रिगुप्तिगुप्तास्तिष्ठन्त्वित्युक्ते अस्माकं तदा मनोगुप्तिनष्टेति न स्थिताः। श्रुत्वा समाश्चर्यचेतोऽवोभवीत् ।।
ततो जिनपालमुनि पप्रच्छ 'यूयं किमिति न स्थिताः'। स आह-भूमितिलकनगरे राजा प्रजापालो देवी धारिणी। सता वसुकान्ता कौशाम्ब्याधिपचण्डप्रद्योतनेन याचिता । स नादात् । इतरस्तदेतत्पुरं विवेष्ट । तदा दुर्गसंलग्नवने जिनपालमुनिर्ध्यानेनास्थाद्वनपालाद्विबुध्य प्रजापालः सानन्दो वन्दितुमैत् । वन्दनानन्तरं कोऽप्यवदत्-हे मुने, राज्ञो अभयप्रदानं प्रयच्छेति । ततस्तत्पुण्येन कयाचिद्दे वतयोक्तं माभैषीरिति । ततो विभूत्या पुरं प्रविष्टः । ततस्तं जैनं मत्वा चण्डप्रद्योतनो व्याघुटितः । तत इतरस्तदन्तिकं विशिष्टान् प्रस्थाइसपर चेलिनीने उत्तर दिया कि चलो वहाँ जाकर उन्हींसे पूछे । तब वे दोनों वहाँ गये। वन्दना करनेके पश्चात् राजा श्रेणिकने धर्मघोष मुनिसे उसके विषयमें प्रश्न किया । उत्तरमें मुनि बोले कि हमारे मनोगुप्ति नहीं थी। वह इस प्रकारसे-कलिंग देशके अन्तर्गत दन्तिपुरमें धर्मघोष नामका राजा (मैं) राज्य करता था। रानीका नाम लक्ष्मीमती था। वह किसी निमित्तसे दिगम्बर मुनि होकर आहारके लिए कौशाम्बी पुरीमें गया । वहाँ उसका पडिगाहन राजमन्त्री गरुड़की पत्नीने किया । आहारके समय हाथमेंसे पृथिवीपर गिरे हुए ग्रासकी ओर दृष्टिपात करते हुए उसने गरुड़की पत्नीके अंगूठेको देखा । उसे देखकर उसको 'यह लक्ष्मीमतीके अंगूठेके समान है' इस प्रकार अपनी पत्नीका स्मरण हो आया । इससे उसने ( मैंने ) अन्तराय किया। वे हम लोग विहार करते हुए यहाँ आये हैं । तुम्हारी पत्नीने 'तीन गुप्तियोंके परिपालक' कहकर हमारा पडिगाहन किया था। परन्तु उस समय हमारी मनोगुप्ति नष्ट हो चुकी थी। इसी कारणसे हम वहाँ नहीं रुके। इस वृत्तान्तको सुनकर राजा श्रेणिकको बहुत आश्चर्य हुआ।
तत्पश्चात् श्रेणिकने जिनपाल मुनिसे पूछा कि आप क्यों नहीं रुके । वे बोले- भूमितिलक नगरमें प्रजापाल नामका राजा राज्य करता था । उसकी पत्नीका नाम धारिणी था। इन दोनोंके एक वसुकान्ता नामकी पुत्री थी, जिसे कौशाम्बीके राजा चण्डप्रद्योतनने माँगा था । परन्तु प्रजापालने उसे पुत्रीको नहीं दिया । तब चण्डप्रद्योतने आकर उसके नगरको घेर लिया। उस समय दुर्गसे लगे हुए वनमें जिनपाल मुनि ध्यानसे स्थित थे। प्रजापाल राजा वनपालसे इस शुभ समाचारको जानकर आनन्दपूर्वक उनकी वन्दनाके लिए गया । वन्दनाके पश्चात् किसीने कहा कि हे साधो ! राजाके लिए अभयदान दीजिए । तब उसके पुण्यके प्रभावसे किसी देवताने कहा कि भयभीत मत हो । तत्पश्चात् वह विभूतिके साथ पुरमें प्रविष्ट हुआ । इससे चण्डप्रद्योत उसे जिनभक्त जानकर वापिस चला गया। तब प्रजापालने उसके वापिस हो जानेका कारण ज्ञात
१.प पृष्टावः । २.१ श दन्तपुरे । ३. फ हस्ताच्छिक्तो। ४. फ सस्मरेत्यंतरायं श संस्मारेत्यंतरायां । ५. प गुप्ति नष्ट इति फ गुप्तिर्नतिष्ठेति श गुप्तिनष्टे इति । ६. प ससास्वर्यचित्तो अवोभवीत् श ससाश्चर्यचित्तोऽवोभवीत् । ७. श धारिणी सुकांता । ८. प श इतरस्तत्पुरं तदा विवेष्टो। ९. पब श जिनपालि । १०.फ वंदितुमेत्य आयतः ब वंदितुमैयागत्तः श वंदितुमेत् ।
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