Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुण्यावकथाकोशम्
[ १-६ :
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उभयबलं स्वस्थाने स्थितम् । द्वितीय दिनेऽतिरौद्रे संग्रामे जाते स्वबलभङ्गं वीक्ष्य कोपेन करकण्डुर्महायुद्धं कृत्वा त्रीनपि बन्बन्ध । तन्मुकुटे पादं न्यसन् तत्र जिनबिम्बाि विलोक्य 'मिच्छामि' इति भणित्वा यूयं जैना इत्युक्ते तैरोमिति' भणिते, हा हा निकृष्टोऽहं जैनानामुपसर्ग कृतवानिति पश्चात्तापं कृत्वा क्षमां कारिता तैः । स्वदेशं गच्छन् तेरसमीपे विमुच्य स्थितः ।
तत्र' दौवारिकैरन्तःप्रवेशिताभ्यां धाराशिवँभिल्लाभ्यां विज्ञप्तो राजा - देवास्माद्दक्षिदिशि त्रिगव्यत्युत्तरें पर्वतस्योपरि धाराशिवं नाम पुरं तिष्ठति सहस्रस्तम्भजिनालयं चतस्योपरि पर्वतमस्तके वल्मीकं च । तत् श्वेतो हस्ती पुष्करेण जलं कमलं च गृहीत्वागत्य त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य जलेन सिक्त्वा अरविन्देन पूजयित्वा प्रणमतीति [ श्रुत्वा कर कण्डुना ] ताभ्यां तुष्टिं दत्त्वा तत्र गत्वा जिनं समर्च्य वल्मीकं पूजयन्तं हस्तिनं वीच्य तत् खनितम् । तत्र स्थितां मञ्जूषामुत्पाटय रत्नमयपार्श्वनाथप्रतिमां वीक्ष्य हृष्टः । तल्लयणेऽर्गलदेवसंज्ञया" स्थापितवांश्च । मूलप्रतिमा ग्रन्थि विलोक्य विरूपको दृश्यते इति शिलाकर्मिणं बभाणेमं
सेना अपने स्थानमें ठहर गई । दबाव को देखकर करकण्डुने क्रुद्ध फिर उसने उनके मुकुटपर पैर
आये और घोर युद्ध करने लगे । सूर्यास्त होनेपर दोनों ओरकी दूसरे दिन भी अतिशय भयानक युद्धके होनेपर अपनी सेना के होकर महान् युद्ध किया और उन तीनों राजाओंको बाँध लिया । रखते हुए जब जिनप्रतिमाओं को देखा तब ' तस्स मिच्छामि [ तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ]' अर्थात् उसका मेरा यह दोष मिथ्या हो, यह कहकर उसने आत्मनिन्दा करते हुए उनसे पूछा कि आप जैन हैं क्या ? उत्तर में जब उन्होंने यह कहा कि हाँ हम लोग जैन हैं तब उसने कहा हा ! हा ! मैं बहुत निकृष्ट हूँ, मैंने जैनोंके ऊपर उपसर्ग किया है, इस प्रकार पश्चात्ताप करते हुए उसने उनसे क्षमा करायी । तत्पश्चात् स्वदेशको वापिस आता हुआ वह तेरपुरके समीपमें पड़ाव डालकर ठहर गया ।
उस समय वहाँ धारा और शिव नामक दो भील आये जिन्हें द्वारपाल भीतर ले गये । उन्होंने राजासे निवेदन किया कि हे देव ! यहाँ से दक्षिण दिशा में तीन कोशके ऊपर स्थित पर्वतके ऊपर धाराशिव नामका नगर है और सहस्रस्तम्भ जिनालय है । उक्त पर्वत के शिखरपर एक सर्पकी बाँबी है । वहाँ एक श्वेत हाथी सूँड़ में जल और कमलको लेकर आता है व तीन प्रदक्षिणा करता है । फिर वह उसे जलसे अभिषेक करके कमल-पुष्पसे पूजा करता हुआ प्रणाम करता है । यह सुनकर करकण्डुने उन दोनों भीलोंको पारितोषिक दिया । तत्पश्चात् उसने वहाँ जाकर जिन भगवान्की पूजा करके बाँबीकी पूजा करते हुए उस हाथी को देखा । उसने उक्त खुदवाया | उसके भीतर स्थित पेटीको तोड़कर उसमें स्थित रत्नमय पार्श्वनाथ जिनेन्द्रकी प्रतिमाका दर्शन करके वह बहुत हर्षित हुआ । उस लयन ( पर्वतस्थ पाषाणमय गृह ) में उसने उक्त मूर्तिको अर्गल देवके नामसे स्थापित किया । मूल प्रतिमा के आगे गाँठको देखकर उसने यह विचार करते हुए कि वह यहाँ विकृत दीखती है, शिल्पीको उसे तोड़ डालनेके लिए कहा ।
१. प श दिने इति रौद्रे । २. फ न्यसत् । ३. प्रतिषु विलोक्य तस्स मिच्छामीति । ४. प तैरोमिति, श तेराहुउमिति । ५. फकारिताः । ६. श तत्रा । ७. फ धराशिव, श धरोशिव । ८. व्यन्तरे । ९. फ जिनालयणं च तस्यो, श जिनालयं तस्यो । १०. फ सीत्कारविंदेन । ११. फ तल्लयणार्गलदेव ।
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