Book Title: Punyasrav Kathakosha
Author(s): Ramchandra Mumukshu, A N Upadhye, Hiralal Jain, Balchandra Shastri
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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पुण्यात्रवकथाकोशम्
[१-६ : श्रेण्यां रथनूपुरे राजानौ नीलमहानीलो जाती । संग्रामे शत्रुभिः कृतविद्याछेदावशेषितौ ताविदं कारितवन्तौ । विद्याः प्राप्य विजयाधं गतौ तपसा दिवं गताविति निशम्य तौ दीक्षितौ । ज्येष्ठो ब्रह्मोत्तरं गत इतर आर्तेन हस्ती जातस्तेन देवेन संबोधितः सन् जातिस्मरो भूत्वा सम्यक्त्वं व्रतानि चादाय तां पूजयितुं लग्नः । यदा कश्चिदिमां खनति तदा शक्त्या संन्यासं गृहाणेति प्रतिपाद्य देवो दिवं गतः। त्वयोत्पाटिते सति हस्ती संन्यासेन तिष्ठति । त्वं पूर्वमत्रैव गोपालो जिनपूजया राजा जातोऽसि इति तं संबोध्य नागकुमारो नागवापिकां गतः ।
तृतीयदिने गत्वा राज्ञा तस्य हस्तिनो धर्मश्रवणं कृतम् [कारितम् ] । सम्यकपरिणामेन तनुं विसृज्य सहस्रारं गतो हस्ती । करकण्डुः स्वस्य मातुरर्गलस्य च नाग्ना लयणत्रयं कारयित्वा प्रतिष्ठांच, तत्रैव स्वतनुजवसुपालाय स्वपदं वितीर्य स्वपितृनिकटे चेरमादि क्षत्रियैश्च दीक्षां बभार, पद्मावत्यपि। करकण्डुर्विशिष्टं तपो विधायायुरन्ते संन्यासेन वितनुर्भूत्वा सहस्त्रारं गतः । दन्तिवाहनादयः स्वस्य पुण्यानुरूपं स्वर्गलोकं गता इति जिनपूजया गोपालोऽप्येवंविधो जो ऽन्यः किं न स्यादिति ॥६॥ नील और महानील राजा राज्य करते थे। शत्रुओंने युद्ध में उनकी समस्त विद्याओंको नष्ट कर दिया था। तब निःशेष होकर उन्होंने इस लयनका निर्माण कराया था। तत्पश्चात् वे अपनी उन विद्याओंको फिरसे प्राप्त करके विजयापर वापिस चले गये और पश्चात् वे दीक्षित होकर तपके प्रभावसे स्वर्गमें पहुँचे। मुनिके द्वारा प्ररू पित इस वृत्तान्तको सुनकर वे दोनों ( अमितवेग और सुवेग ) दीक्षित हो गये। उनमें बड़ा ( अमितवेग ) ब्रह्मोत्तर स्वर्गमें गया और दूसरा ( सुवेग) आर्तध्यानसे मरकर हाथी हुआ। वह उक्त देवसे संबोधित होकर जातिस्मरणको प्राप्त हुआ। तब उसने सम्यक्त्वके साथ व्रतोंको ग्रहण कर लिया और फिर वह उसकी पूजा करनेमें संलग्न हो गया। जब कोई इसको खोदे तब तुम शक्तिके अनुसार सन्यासको ग्रहण कर लेना, इस प्रकार समझा करके उपर्युक्त देव स्वर्गमें वापिस चला गया। तदनुसार तुम्हारे द्वारा उसके खोदे जानेपर उक्त हाथीने संन्यास ग्रहण कर लिया है। तुम पूर्वमें यहींपर ग्वाला थे जो जिन-पूजाके प्रभावसे राजा हुए हो । इस प्रकार संबोधित करके वह नागकुमार नागवापिकाको चला गया ।
तीसरे दिन करकण्डु राजाने जाकर उस हाथीको धर्मश्रवण कराया। इससे वह हाथी निर्मल परिणामोंसे मरकर सहस्रार स्वर्गमें गया । करकण्डुने अपने, अपनी माताके और अर्गल देवके नामसे तीन लयन ( पर्वतवर्ती पाषाणगृह ) बनवाकर उनकी प्रतिष्ठा करायी। फिर उसने वहींपर अपने पुत्र वसुपालको राज्य देकर चेरम आदि राजाओंके साथ अपने पिताके समीपमें दीक्षा धारण कर ली । उसके साथ ही पद्मावतीने भी दीक्षा ग्रहण कर ली । करकण्डुने विशेष तपश्चरण किया। आयुके अन्तमें वह संन्यासपूर्वक मरणको प्राप्त होकर सहस्रार स्वगमें गया। दन्तिवाहन आदि भी अपने-अपने पुण्यके अनुसार स्वर्गलोकको गये। इस प्रकार जिनपूजाके प्रभावसे जब ग्वाला भी इस प्रकारकी विभूतिसे संयुक्त हुआ है तब दूसरा विवेकी जीव क्या न होगा ? वह तो मोक्षसुखको भी प्राप्त कर सकता है ॥६॥
१. फछेदावतोषितो ताविदं। २. ब-प्रतिपाठोऽयम् । पफ श तदाशक्ता । ३. फ धर्माधर्मश्रवणं। ४. प स्वस्य मातुरर्गलादवस्यवनाम्ना फ स्वमातुर्बालदेवस्य च नाम्ना। ५. श कारित्वा । ६. प स्वपित्रा पार्वे वेरमादि फ स्वपितृनिकटे चौरमादि ब स्वपित्रा चेरमादि श स्वपित्रा पावें चरमादि। ७. श संन्यासे ।
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