Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा.....
द्वितीय अध्याय........{27} युक्त होता है। यहाँ भी प्रमत्त के सामान्य स्वरूप की चर्चा है। इसे प्रमत्तसंयत गुणस्थान का उल्लेख नहीं माना जा सकता है। इसी क्रम में पंचम अध्ययन के द्वितीय उद्देशक के सैतीसवें सूत्र में भी प्रमत्त को बहिर्मुखी और अप्रमत्त को प्रवर्जित कहा गया है। यहाँ भी इसे गुणस्थान सिद्धान्त का परिचायक नहीं कहा जा सकता है।
आचारांगसूत्र के पंचम अध्ययन के तृतीय उद्देशक में 'गुणासाएहिं' शब्द का उल्लेख है, जिसका तात्पर्य गणों में आसक्त होना है। यहाँ भी गुण शब्द पूर्ववत् ऐन्द्रिक विषयों का ही परिचायक है, गुणस्थानों का नहीं। पंचम अध्ययन के चतुर्थ उद्देशक के सूत्र क्रमांक-७५ एवं पंचम उद्देशक के सूत्र क्रमांक-८६ में उवसंत (उपशान्त) शब्द का प्रयोग हुआ है। पुनः आचारांगसूत्र के नवम अध्ययन के द्वितीय उद्देशक की चतुर्थ गाथा में, भगवान महावीर को रात-दिन यत्नवान होकर, अप्रमत्तभाव से आत्म समाधिस्थ होकर ध्यान करने वाला कहा गया है, किन्तु यहाँ महावीर की जिस अप्रमत्त अवस्था को सूचित किया गया है वह गुणस्थान की प्रतिपादक हो, यह कहना कठिन है। यद्यपि यह अवश्य माना जा सकता है कि महावीर की यह अवस्था सप्तम गुणस्थानवर्ती अप्रमत्तसंयत के समान ही रही होगी। उपर्युक्त चर्चा के अतिरिक्त आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के विभिन्न अध्ययनों में विरत और अविरत शब्द का भी अनेक बार उल्लेख हुआ है, किन्तु यह उल्लेख भी सामान्यतया मुनि की विशेषताओं के ही सन्दर्भ में हुआ है। अतः इस समस्त चर्चा में गुणस्थान की संकल्पना करना दूर की कौड़ी ढूंढने के समान ही है। आचारांगसूत्र के इस प्रथम श्रुतस्कन्ध में गुण शब्द का जहाँ भी प्रयोग हुआ है, वहाँ विषयासक्ति या ऐन्द्रिक विषयों के अर्थ में ही हुआ है एवम् उसका भी गुणस्थान से कोई सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता है। डॉ. सागरमल जैन ने उनकी पुस्तक 'गुणस्थान सिद्धान्त : एक विश्लेषण' में आचारांग के आधार पर गुणस्थान सिद्धान्त में प्रयुक्त गुण शब्द के एक नवीन अर्थ की संकल्पना की है। उनके अनुसार गुणस्थान में गुण शब्द सर्व गुणों या आत्म गुणों का वाचक न होकर बन्धक का वाचक है। यह बन्धन के स्थानों के क्षय की चर्चा करता है। यह स्पष्ट है कि आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध में गुण शब्द विषय आसक्ति या बन्धन का ही वाचक रहा है, क्योंकि गुण शब्द का एक अर्थ रस्सी भी होता है। जिस प्रकार रस्सी बांधने का काम करती है, ठीक उसी प्रकार इन्द्रियों के विषय भी आत्मा को बांधने का काम करते हैं। यदि हम कर्मप्रकृतियों के बन्ध और सत्ता की दृष्टि से विचार करें, तो गुणस्थान सिद्धान्त आत्मा को बन्धन में डालने वाले स्थानों का विचार करते हैं। यदि हम कर्मप्रकृतियों के क्षय की दृष्टि से विचार करें, तो गुणस्थान सिद्धान्त आत्मिक गुणों के विकास की चर्चा करता है। इस प्रकार दोनों ही अवधारणाएं सापेक्षित रूप से सत्य मानी जाती हैं। जहाँ तक आचारांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध अर्थात् आचारांगचूला का प्रश्न है, सामान्य रूप से उसमें असंयत और संयत-ऐसी दो अवस्थाओं का उल्लेख मिलता है । उसमें असंयत और संयत-इन दोनों अवस्थाओं का उल्लेख लगभग एक सौ चालीस बार हुआ है, किन्तु इन समस्त प्रसंगों में मुनि के लिए क्या करणीय है, इसी का उल्लेख मिलता है। सम्पूर्ण आचारांगचूला मुख्यतया मुनि आचार से सम्बन्धित है. इसीलिए उसमें जहाँ-जहाँ संयत (संजय) पद आया है, वहाँ-वहाँ इसी तथ्य को इंगित किया गया है कि मुनि के लिए क्या करणीय है और क्या अकरणीय है। इस प्रकार आचारांगचूला में जहाँ-जहाँ असंयत (असंजय) पद आया है, वहाँ-वहाँ सामान्यतया यह कहा गया है कि किस-किस प्रकार की क्रिया मुनि के असंयम का कारण होती है। जैसे मिट्टी आदि से लिप्त पात्र को खोलकर उससे भोजन-पानी आदि लेना यह मुनि के लिए असंयम का कारण है। ऐसे अनेक प्रसंगों में जहाँ निषेध अथवा सदोष अशन, पान, वस्त्र अथवा अन्य प्रकार की प्रवृत्तियों का उल्लेख हुआ है, वहाँ यह बताया गया है कि कौन-कौन सी प्रवृत्तियाँ मुनि के लिए असंयम का कारण होती है। चूंकि हमारा प्रतिपाद्य विषय गुणस्थान सिद्धान्त है, अतः इस सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा करना आवश्यक प्रतीत नहीं होता है। यद्यपि इस चर्चा में संयम के संरक्षण और उससे विचलित होने की स्थितियों की चर्चा है, किन्तु इस समस्त चर्चा का सम्बन्ध संयमी जीवन से होते हुए भी प्रमत्तसंयत या अप्रमत्तसंयत गुणस्थानों से प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि गुणस्थानों की अपेक्षा से जो चर्चा की जाती है, उसमें मुख्य रूप से इन अवस्थाओं में किन कर्मप्रकृतियों के बन्ध, उदय, उदीरणा, बन्ध-विच्छेद आदि की क्या स्थिति होती है, इसी की चर्चा रहती है, जबकि यहाँ मुख्य प्रतिपाद्य विषय यह है कि संयमी मुनि के लिए क्या करणीय है या क्या अकरणीय। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचारांग और उसकी चूला में हमें गुणस्थान सिद्धान्त से सम्बन्धित किसी विशिष्ट सामग्री की उपलब्धि नहीं होती है।
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