Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{173} माना जा सकता है और यह भी माना जा सकता है कि दिगम्बर परम्परा में गुणस्थान सिद्धान्त का जो विवेचन उपलब्ध होता है, उसका उपजीव्य या आधारभूत ग्रन्थ षट्खण्डागम है।
त्रभगवती आराधना में गुणस्थान सिद्धान्त
भगवतीआराधना का परिचय - दिगम्बर परम्परा में भगवतीआराधना को आगम तुल्य एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता है। यद्यपि डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ 'जैनधर्म का यापनीय संप्रदाय' में इसको यापनीय परम्परा का ग्रन्थ माना हैं |१६५ यापनीय परम्परा आगमों और स्त्री-मुक्ति की संपोषक होते हुए भी मुनि की अचेलता की ही पक्ष धर रही है, इस दृष्टि से वह दिगम्बर परम्परा का ही एक रूप मानी जाती है । इस ग्रन्थ के रचयिता पाणीतलभोजी शिवार्य है। इससे भी यही सिद्ध हो जाता है कि वे अचेलता के पक्षधर रहे है। यद्यपि ग्रन्थ में ऐसे अनेक सन्दर्भ है, जो वर्तमान दिगम्बर परम्परा की मान्यताओं से भिन्न हैं। इस सम्बन्ध में डॉ. सागरमल जैन ने अपने ग्रन्थ 'जैनधर्म का यापनीय संप्रदाय' में विस्तारपूर्वक परिमाण प्रस्तुत किए है, फिर भी हम यहाँ इस विवाद में पड़ना नहीं चाहते हैं, क्योंकि हमारी शोध का विषय गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा तक सीमित है। इतना तो निर्विवाद सत्य है कि यह ग्रन्थ अचेल परम्परा का ही ग्रन्थ है, क्योंकि इस ग्रन्थ में अनेक स्थानों पर साधक को उत्कृष्ट लिंग अर्थात् अचेलकत्व स्वीकार करने को कहा गया है। ग्रन्थ का मूल नाम आराधना है, किन्तु आदरवश इसे भगवती आराधना या मूल आराधना कहा जाता है । इस ग्रन्थ के लेखक शिवार्य है । उन्होंने स्वयं ही ग्रन्थ के अन्त में अपने को पाणीतलभोजी शिवार्य के नाम से उल्लेख किया है । ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में शिवार्य ने, न केवल अपने नाम का उल्लेख किया है, अपितु अपनी गुरु परम्परा का भी उल्लेख किया है। अपनी गुरु परम्परा में उन्होंने आर्य जिननन्दीगणि, आर्य सर्वगुप्तगणि और आर्य मित्रनन्दी का उल्लेख किया है। भगवतीआराधना के रचनाकार शिवार्य को कहीं-कहीं शिवकोटि के नाम से ही उल्लेखित किया जाता है।
तक भगवती आराधना के रचनाकाल का प्रश्न है, इस पर लिखी गई अपराजितसरि की टीका से और जिनसेन के आदि पुराण में शिवकोटि के उल्लेख से इतना तो सिद्ध हो जाता है कि वह नवीं-दसवीं शताब्दी के पूर्व लिखा गया है। ग्रन्थकार और उनके गुरुओं के साथ लगे हुए आर्य विशेषण से यह प्रतीत होता है कि उनका सम्बन्ध आर्यकुल से रहा होगा। यद्यपि कल्पसत्र और नन्दीसत्र की स्थविरावली में मनियों के नामों के पूर्व आर्य शब्द लगाने की परम्परा रही है, किन्तु भगवती आराधना के रचनाकार शिवार्य के नाम के साथ लगे आर्य शब्द का सम्बन्ध विदिशा के उदयगिरि के गुप्त संवत् १०६ अर्थात् विक्रम संवत् ४२६ में उल्लेखित भद्रान्वय के आर्यकुल से लगता है । शिवार्य ने अपने को पाणीतलभोजी कहा है । विदिशा की उसी काल की ही एक अन्य प्रतिमा पर पाणीपात्रिक आर्यचंद्र का भी उल्लेख मिलता है । इससे ऐसा लगता है कि शि सम्बन्धित रहे हुए है । अतः उनका काल विक्रम की पांचवीं शताब्दी के पश्चात् ही मानना होगा। भगवती आराधनाकार शिवार्य गणस्थान सिद्धान्त से परिचित प्रतीत होते हैं और गणस्थान के विकसित स्वरूप की चर्चा पांचवीं शताब्दी के पूर्व के ग्रन्थों में नहीं मिलती है । गुणस्थान सिद्धान्त की यह चर्चा तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य के बाद ही विकसित हुई है, अतः भगवती आराधना और उसके लेखक का काल पांचवीं शताब्दी के पश्चात ही कहीं मानना होगा। इसी क्रम में आगे हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि भगवती आराधना में गुणस्थान सिद्धान्त की चर्चा किस रूप में मिलती है। भगवती आराधना में गुणस्थान :
भगवतीआराधना की प्रथम गाथा की अपराजितसूरि विरचित टीका में बताया गया है कि असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत जीव आराधक होते हैं ।१६६ यद्यपि मूल गाथा में इनके साथ गुणस्थान शब्द का उल्लेख नहीं है, किन्तु ये अवस्थाएँ गुणस्थानों से अभिन्न ही हैं ।
१६५ जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय, लेखकः डॉ. सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, १६६६ पृ. १२०-१३० १६६ भगवती आराधना, अपराजितसूरि की टीका सहित - सं.पं. कैलाशचंदजी, प्रकाशक : गाथा क्रमांक १ और उसकी टीका ।
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