Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...
तृतीय अध्याय.......{175} का तात्पर्य अर्थों के और व्यंजनों के परिवर्तन को विचार कहते हैं। परंतु समुच्चयरूप न लेकर पृथक्त्व शब्द से इसके अर्थ का पृथक्त्व ग्रहण करना चाहिए। विचार के होने से इसे सविचार कहा है । वितर्क अर्थात् श्रुतज्ञान। 'अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः' इत्यादि परिमित अनेक द्रव्यों का ज्ञान कराने में समर्थ श्रुतवचनों से उत्पन्न हुआ पृथक्त्व सवितर्क सविचार शुक्लध्यान भिन्न-भिन्न द्रव्यों को आलम्बन करता है, अतः एक ही द्रव्य का आलम्बन करनेवाला एकत्ववितर्क शुक्लध्यान से भिन्न होता है । पृथक्त्व वितर्क शुक्ल ध्यान तीनों योगों की सहायता से होता है और एकत्व वितर्क शुक्लध्यान एक ही योग की सहायता से होता है। इसी कारण दोनों में भिन्नता पाई जाती है । पृथक्त्ववितर्क शुक्लध्यान का स्वामी उपशान्तमोह गुणस्थानवर्ती और एकत्ववितर्क शुक्लध्यान का स्वामी क्षीणकषाय गुणस्थानवी जीव होते हैं। महापुराण के इक्कीसवें पर्व में ध्यान का वर्णन करते हुए कहा है कि अनेकपन को पृथक्त्व और श्रुत को वितर्क कहते हैं। अर्थ, व्यंजन और योगों के परिवर्तन को विचार कहते हैं। इस ध्यान का ध्याता एक अर्थ से दूसरे अर्थ को, एक वाक्य से दूसरे वाक्य को और एक योग से दूसरे योग को प्राप्त होता हुआ इस ध्यान को ध्याता है, क्योंकि तीनों योगों के धारक और चौदह पूर्वो के ज्ञाता मुनिराज इस ध्यान को करते हैं। अतः प्रथम शुक्लध्यान सवितर्क और सविचार होता है । श्रुतस्कन्ध रुपी समुद्र में जितना वचन और अर्थ का विस्तार है, वे सब इस शुक्लध्यान में ध्येय होता है और इसका फल मोहनीयकर्म का उपशम या क्षय है। १८७७ वीं गाथा में द्वितीय शुक्लध्यान का नाम एकत्ववितर्क है, क्योंकि इसमें एक ही द्रव्य का आलम्बन लेकर एक ही द्रव्य का ध्यान किया जाता है । एक द्रव्य का आलम्बन लेने से इसे एकत्व कहते हैं। यह ध्यान किसी एक योग में स्थित आत्मा को ही होता है। एकत्ववितर्क नामक द्वितीय शुक्लध्यान का स्वामी क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती मुनि होता है । सोमदेवउपासकाध्ययन में कहा है कि मन में किसी प्रकार का विचार न होते हुए जब व्यक्ति आत्मा में लीन हो जाता है, उसे निर्बीजध्यान कहते हैं। यह निर्बीजध्यान एकत्ववितर्क ही है। १८७८ और १८७६वीं गाथा में श्रुत को वितर्क कहते हैं और चौदह पूर्वगत अर्थ में कुशल मुनि ही इस ध्यान को ध्याता है, इसीलिए दूसरा शुक्लध्यान सवितर्क है। अर्थ, व्यंजन और योगों के वर्तन को विचार कहते हैं । उसके न होने से दूसरा शुक्लध्यान अविचार कहा गया है। प्रथम शुक्लध्यान परिमित अनेक द्रव्यों और पर्यायों का आलम्बन लेता है तथा तीसरे और चौथे शुक्लध्यान का विषय समस्त वस्तु है, क्योंकि केवलज्ञान का विषय सभी द्रव्य और सभी पर्याय हैं।
भगवती आराधना में १८८१ वीं गाथा में बताया है कि सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती केवली सूक्ष्म काययोग का रोध करने के लिए तृतीय शुक्ल ध्यान को ध्याता है । भगवती आराधना में १८८२ वीं गाथा की टीका के विशेषार्थ में बताया गया है कि ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थानवी जीवों के भाव को शैलेशी नहीं कहा है। तीसरा शुक्लध्यान वितर्क और विचार से रहित होने से अवितर्क और अविचार होता है । यह सभी कर्मों का क्षय किए बिना नहीं होता है, इसलिए अनिवर्ति हैं। इसमें प्राण, अपान, श्वास-उच्छ्वास तथा समस्त काययोग, वचनयोग एवं मनोयोगरूप हलन-चलन क्रिया का ऐच्छिक व्यापार समाप्त हो जाता है, इसीलिए अक्रिय है । शीलों के स्वामी के भाव को शैलेशीभाव कहते हैं, वह यथाख्यात चारित्र है । उसके साथ होनेवाले शैलशी ध्यान से सभी कर्मों का आनव रुक जाता है, अतः इसे निरूद्धयोग कहा है। इसके अनन्तर अन्य कोई ध्यान नहीं होने से इसे अपश्चिम कहा है। यह परम शुक्लध्यान है। यहाँ शैलेशीभाव से तात्पर्य यथाख्यातचारित्र है, किन्तु यथाख्यातचारित्र तो उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें ओर क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती आत्मा को होता है, लेकिन उसे शैलेशीभाव नहीं कहा है।
भगवती आराधना में १८८३ वीं गाथा में कहा गया है कि काययोग का निरोध करके अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती केवली औदारिक, तैजस और कार्मण शरीर का क्षय करता हुआ अन्तिम शुक्लध्यान को ध्याता है। सूक्ष्मकाययोग रूप आत्मपरिणामवाला सयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती तृतीय शुक्लध्यान को और अयोग रूप आत्मपरिणामवाला अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती चतुर्थ शुक्लध्यान को ध्याता है। यह तीसरे और चौथे शुक्ल ध्यान में भेद है। महापुराण में कहा है कि तीसरे ध्यान के पश्चात् योग का निरोध करके आसव से रहित होकर अयोगीकेवली गुणस्थानवर्ती समुच्छिन्नक्रियाअनिवृत्ति नामक चतुर्थ शुक्लध्यान को ध्याता १६८ उपासकाध्ययन, सोमदेव, ६२३
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