Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
तृतीय अध्याय........{182} मान, माया और लोभ-ये कषाय हेतु हैं। इन कषायों से परिग्रह आदि कार्य होते हैं, अतः इन हेतुओं के क्षय हो जाने पर परिग्रह आदि संज्ञाएँ भी क्षय हो जाती हैं। प्रमत्तसंयत नामक षष्ठ गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक के सभी गुणस्थानवर्ती साधुओं को इन हेतुओं का क्षय करना चाहिए, क्योंकि इन हेतुओं को नहीं रहने से परिग्रह आदि की इच्छा नहीं रहती है। हेतु-कारण प्रत्यय है, क्योंकि कारण के अभाव में कार्य का अभाव अवश्यम्भावी है, इसीलिए कारणों का क्षय करना चाहिए।
मूलाचार के पर्याप्ति नामक बारहवें अधिकार की ११५६वीं गाथा में स्थानाधिकार का प्रतिपादन करते हुए बताया गया है कि जीवों में चौदह जीवस्थान, चौदह गुणस्थान और चौदह ही मार्गणाएँ होती हैं । जीव जिन में स्थिरता को धारण करते हैं, उन्हें जीवस्थान कहते हैं, मिथ्यादृष्टि आदि गुणों का जिन में निरूपण किया जाता है, वे गुणस्थान कहलाते हैं, जिन में अथवा जिनके द्वारा जीव खोजे जाते हैं, उनको मार्गणास्थान कहते हैं।
पुनः इसी द्वादश अधिकार की ११६०वीं गाथा में जीवस्थान, गुणस्थान और मार्गणास्थान कितने हैं, इस बात को बताया गया है कि जीवस्थान चौदह हैं, मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थान चौदह तथा गति आदि मार्गणास्थान चौदह होते हैं।
मूलाचार के पर्याप्ति नामक बारहवें अधिकार की ११६७ और ११६८ वी गाथा में चौदह गुणस्थानों के नामों का निरूपण किया गया है तथा टीका में चौदह गुणस्थानों के स्वरूप का उल्लेख किया गया है । चौदह गुणस्थानों के नाम निम्न प्रकार से हैं :- (१) मिथ्यादृष्टि, (२) सासादन, (३) मिश्र, (४) असंयत, (५) देशविरत, (६) प्रमत्तसंयत, (७) अप्रमत्तसंयत, (८) अपूर्वकरण, (६) अनिवृत्तिकरण, (१०) सूक्ष्मसंपराय, (११) उपशान्तमोह, (१२) क्षीणमोह, (१३) सयोगी जिन और (१४) अयोगी जिन।
पुनः मूलाचार के पर्याप्त नामक बारहवें अधिकार की १२०२ वीं गाथा में मार्गणास्थानों में गुणस्थानों का निरूपण करते हुए कहा है कि देव और नारकियों में चार गुणस्थान होते हैं। तिर्यंचों में पांच गुणस्थान होते हैं तथा मनुष्यों में चौदह गुणस्थान होते हैं। देव ओर नारकियों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर असंयतसम्यग्दृष्टि तक के प्रथम चार गुणस्थान होते हैं। तिर्यंचों में उपर्युक्त चार गुणस्थानों के साथ-साथ संयतासंयत गुणस्थान भी होता है। मनुष्यों में मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगीकेवली पर्यन्त चौदह गुणस्थान होते हैं। एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय-इन सभी में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। संज्ञी पंचेन्द्रियों में चौदह गुणस्थान होते हैं । पृथ्वीकाय, जलकाय, अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय इन पांच स्थावर कायों में मात्र एक मिथ्यादृष्टि नामक प्रथम गुणस्थान होता है । द्वीन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त त्रसकाय में भी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान होता है। संज्ञी पंचेन्द्रिय त्रसकाय में चौदह गुणस्थान होते हैं ।
सत्यमनोयोग और असत्यमृषामनोयोग (अनुभय) में, उसी प्रकार सत्यवचनयोग और असत्यमृषावचनयोग (अनुभय)-इन चारों में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगीकेवली तक के तेरह गुणस्थान होते हैं। असत्यमनोयोग और सत्यमृषामनोयोग (उभय) में तथा असत्यवचनयोग और सत्यमृषामनोयोग (उभय) में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय तक के बारह गुणस्थान होते हैं। औदारिककाययोग में मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगीकेवली तक के तेरह गुणस्थान होते हैं। औदारिकमिश्र और कार्मणकाययोग में मिथ्यादृष्टि, सासादन, असंयतसम्यग्दृष्टि और सयोगीकेवली-ये चार गुणस्थान होते हैं। वैक्रियकाययोग में प्रथम के चार गुणस्थान होते हैं। वैक्रियमिश्रकाययोग में मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयतसम्यग्दृष्टि-ये तीन गुणस्थान होते हैं। आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग में प्रमत्तसंयत गुणस्थान ही होता है । पुरुषवेद में तथा भाववेद की अपेक्षा स्त्रीवेद और नपुंसकवेद में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर अनिवृत्तिकरण तक के नौ गुणस्थान होते है । द्रव्य की अपेक्षा से स्त्रीवेद और नपुंसकवेद में मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर संयतासंयत तक के पांच गुणस्थान होते हैं। पुरुषवेद में सभी गुणस्थान होते हैं। क्रोध, मान और माया-इन तीन कषायों में प्रथम से लेकर अनिवृत्तिबादर तक के नौ गुणस्थान होते हैं। लोभ कषाय में प्रथम के दस गुणस्थान होते हैं। मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान में मिथ्यादृष्टि और सासादन-ये दो ही गुणस्थान होते हैं। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान में असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय तक के नौ गुणस्थान होते हैं । मनः
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