Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP

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Page 436
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा...... पंचम अध्याय........{388} गोम्मटसार और गुणस्थान सिद्धान्त गोम्मटसार का सामान्य परिचय : दिगम्बर परम्परा के कर्मसिद्धान्त सम्बन्धी साहित्य में षट्खण्डागम और प्राकृत पंचसंग्रह के पश्चात दूसरा कोई विशिष्ट ग्रन्थ है, तो वह गोम्मटसार है । गुणस्थान सिद्धान्त का सम्बन्ध मुख्य रूप से कर्मप्रकृतियों के उदय, क्षय-उपशम आदि से ही रहा हुआ है, इसीलिए गुणस्थान सिद्धान्त की विवेचना में कर्म साहित्य की उपेक्षा सम्भव नहीं होती है । कर्म साहित्य में ही गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी विवरण उपलब्ध होते हैं, अतः यह स्वभाविक है कि षट्खण्डागम और दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह के समान ही गोम्मटसार में भी गुणस्थान सिद्धान्त का विशेष विवरण उपलब्ध होता है । गोम्मटसार में गुणस्थान सिद्धान्त किस रूप में उपलब्ध है, इसकी चर्चा के पूर्व इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में किंचित् विचार कर लेना आवश्यक है । 'गोम्मट' शब्द मूल में कन्नड़ भाषा के “गोम्ट” का तद्भव रूप है । इसका सामान्य अर्थ उत्तम या सुन्दर है। गोम्मटसार शब्द यह बताता है कि यह ग्रन्थ उत्तम ग्रन्थों का साररूप है । वस्तुतः गोम्मटसार ग्रन्थ षट्खण्डागम, पंचसंग्रह आदि ग्रन्थों के आधार पर ही निर्मित हुआ है। अतः इसे गोम्मटसार कहा गया है ।३४७ गोम्मटसार को उसके कर्मकाण्ड की अन्तिम प्रशस्ति में संग्रहसूत्र कहा गया है।३४८ इससे भी यही फलित होता है कि गोम्मटसार दिगम्बर परम्परा के कर्म सम्बन्धी साहित्य का साररूप एक संग्रह ग्रन्थ है। गोम्मटसार के रचयिता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती हैं और उसका रचनाकाल विक्रम संवत् १०३७ से १०४० के बीच माना जाता है । इसप्रकार यह विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी का ग्रन्थ सिद्ध होता है । गोम्मटसार का अपरनाम पंचसंग्रह भी है, ऐसा डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये एवं पंडित कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ने गोम्मटसार के जीवकाण्ड की भू चित किया है ।३४६ गोम्मटसार को पंचसंग्रह कहने का तात्पर्य केवल इतना ही है कि गोम्मटसार और पंचसंग्रह की विषयवस्तु में पर्याप्त समरूपता है । हम जैसा कि पूर्व में सूचित कर चुके हैं, गोम्मटसार की विषय वस्तु षट्खण्डागम, उसकी धवला टीका तथा पंचसंग्रह से ही ली गई है । हम पूर्व में यह भी देख चुके है कि श्वेताम्बर प्राकृत पंचसंग्रह और दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह गुणस्थान सिद्धान्त की सूक्ष्म चर्चाएं प्रस्तुत करते हैं । यही बात गोम्मटसार के सम्बन्ध में कही जा सकती है । गोम्मटसार के जीवकाण्ड और पंचसंग्रह के जीवसमास नामक प्रथम अधिकार में न केवल अनेक गाथाओं की समरूपता है, अपितु गोम्मटसार के कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र ने अपने जीवकाण्ड में जीवसमास के विषयों को अधिक विस्तृत रूप से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। इस सम्बन्ध में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित गोम्मटसार की प्रस्तावना में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। जिस प्रकार दिगम्बर प्राकृत पंचसंग्रह के जीवसमास नामक प्रथम अधिकार में गुणस्थानों के स्वरूप, गुणस्थानों के भेद आदि की विस्तृत चर्चा मिलती है, उसी प्रकार गोम्मटसार में जीवकाण्ड के प्रारम्भ में भी गुणस्थानों के स्वरूप आदि के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की गई है । विशेषता यह है कि इसमें गुणस्थानों की चर्चा के साथ-साथ मार्गणा आदि में भी गुणस्थानों का अवतरण किया गया है। गोम्मटसार जीवकाण्ड में गुणस्थानों का स्वरूप गोम्मटसार के जीवकाण्ड की गाथा क्रमांक ८ में सर्वप्रथम गुणस्थान की परिभाषा दी गई है । उसमें कहा गया है कि मोहिनीयादि कर्म के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के परिणाम स्वरूप जो जीवों की विशेष अवस्थाएं होती है, उन्हें गुणस्थान कहा गया है । इसके पश्चात् गाथा क्रमांक और १० में पंचसंग्रह के समान ही चौदह गुणस्थानों के नाम भी दिए हैं । चौदह ३४७ गोम्मटसार, जीवकाण्ड भाग १ प्रस्तावना पृ. २४ लेखक : आ. नेमिचन्द्र, सम्पादक : डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, कैलाशचन्द्र शास्त्री, प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली ३४८ वही, पृ. २० ३४६ वही Jain Education Interational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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