Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा......
सप्तम अध्याय........{426) प्रथम श्लोक का प्रारम्भ 'गुणस्थानक्रमारोह' शब्द से है। इसी आधार पर इस ग्रन्थ को 'गुणस्थानक्रमारोह' के नाम से ही जाना जाता है । रत्नशेखरसूरि ने प्रस्तुत कृति के अन्त में लेखक के रूप में अपने नाम का स्पष्ट निर्देश किया है । मूल ग्रन्थ में रत्नशेखरसूरि नाम के अतिरिक्त हमें उनके सम्बन्ध में किसी प्रकार की जानकारी उपलब्ध नहीं होती है, किन्तु इस ग्रन्थ का जो
वाद प्रकाशित है, उसमें उनकी गुरू परम्परा का निर्देश किया गया है तथा उनके गच्छ का भी उल्लेख हुआ है । अनुवाद में इन्हें बृहत् खरतरगच्छ से सम्बन्धित बताया गया है । किन्तु यह अनुवादक की भ्रान्ति है, वस्तुतः ये नागपुरीयतपागच्छीय से सम्बन्धित है । गुरु परम्परा की दृष्टि से इसमें रत्नशेखरसूरि के प्रगुरु के रूप में वज्रसेनसूरि का और गुरु के रूप में हेमतिलकसूरि का उल्लेख हुआ है । हेमतिलकसूरि एक प्रसिद्ध नाम है । वज्रसेनसूरि का उल्लेख जैन संस्कृत साहित्य नो इतिहास खण्ड २ (पृ.२६) पर हरिषेण के गुरु के रूप में भी मिलता है।४०६ हरिषेण की कृति नेमिनाथ चरित्र वि.स.१५५० में रचित है। इससे यह फलित होता है कि प्रस्तुत गुणस्थानक्रमारोह इसके पश्चात् ही कभी रचा गया होगा, किन्तु यह भी एक भ्रान्ति है। जिनरत्नकोष में इस ग्रन्थ का रचना काल संवत् १४४७ बताया गया है। हरिषेण के गुरू वज्रसेनसूरि और रत्नशेखरसूरि के प्रगुरु दो भिन्न व्यक्ति है।
जैसा कि हमने पूर्व में उल्लेख किया कि प्रस्तुत ग्रन्थ संस्कृत भाषा में १३६ श्लोकों में रचित है । इस दृष्टि से यह ग्रन्थ अति संक्षिप्त ही है । प्रस्तुत ग्रन्थ में मुख्यतः गुणस्थानों के स्वरूप का ही विशेष विवरण है । इसमें विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध, बन्धविच्छेद, उदय, उदयविच्छेद, उदीरणा, उदीरणाविच्छेद, सत्ता, सत्ताविच्छेद आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा नहीं है । कहीं-कहीं मात्र संक्षिप्त रूप से निर्देश ही हुआ है । इस ग्रन्थ में विभिन्न गुणस्थानों का विभिन्न मार्गणाओं और अनुयोगद्वारों में अवतरण भी नहीं किया गया है । इसकी अपेक्षा इसमें विभिन्न गुणस्थानों में ध्यान आदि किस रूप में होता है, इसकी विशेष चर्चा है । इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय गुणस्थानों के स्वरूप का निर्देश करने के साथ-साथ उनमें होने वाले विभिन्न भावों अर्थात् मनोदशाओं तथा ध्यान आदि का उल्लेख है।
___ इस ग्रन्थ के प्रारम्भ में लेखक सर्वप्रथम गुणस्थानों में क्रम से आरोहण करनेवाले और मोहकर्म पर विजय प्राप्त करनेवाले जिनेश्वर भगवंत को नमस्कार करके गुणस्थानों के किंचित् स्वरूप का विवेचन करने की प्रतिज्ञा करते हैं । दूसरे श्लोक में लेखक ने गुणस्थानों के लिए गुणश्रेणी शब्द का भी प्रयोग किया है । उन्हें गुणश्रेणी स्थानक ऐसा नाम दिया है । इससे ऐसा लगता है कि लेखक गुणस्थान में गुणश्रेणी की अवधारणा को समाहित करके ही अपनी बात कहना चाहते हैं। ___श्लोक क्रमांक २ से लेकर ५ तक चौदह गुणस्थानों के नामों का ही उल्लेख हुआ है। प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान के स्वरूप की चर्चा करते हुए लेखक ने मिथ्यात्व के व्यक्त और अव्यक्त - ऐसे दो भेद किए हैं । मिथ्यात्व का व्यक्त और अव्यक्त के रूप में यह विभेद इस ग्रन्थ की विशेषता है । अनादिकाल में एकेन्द्रियादि जीवों में मिथ्यात्व रहा हुआ है, वह अव्यक्त मिथ्यात्व है। जबकि जिन जीवों ने कुदेव, कुगुरु और कुधर्म को देव, गुरु और धर्म के रूप में मान रखा है उनका मिथ्यात्व व्यक्त मिथ्यात्व है। व्यक्त और अव्यक्त मिथ्यात्व की इस चर्चा में लेखक का कहना है कि एकेन्द्रियादि असंज्ञी जीवों में अव्यक्त मिथ्यात्व होता है, किन्तु संज्ञी पंचेन्द्रियादि जीवों में व्यक्त मिथ्यात्व होता है । अव्यक्त मिथ्यात्वमोह रूप या अज्ञानरूप मिथ्यात्व है और व्यक्त मिथ्यात्व, मिथ्यात्व धारणाओं की स्वीकृति रूप है । जब तक जीव निगोद से लेकर व्यवहार राशि में नहीं आता है, तब तक उसका मिथ्यात्व अव्यक्त या अज्ञान रूप में मिथ्यात्व है, जबकि व्यवहार राशि में आए हुए जीवों का मिथ्यात्व व्यक्त मिथ्यात्व है । यहाँ ग्रन्थकार की एक विशेष मान्यता यह है कि व्यवहार राशि में आए हुए जीवों का मिथ्यात्व ही मिथ्यात्व गुणस्थान है । अव्यवहार राशि के जीवों के मिथ्यात्व को गुणस्थान संज्ञा नहीं होती है । इसके पश्चात् श्लोक क्रमांक ८ में मिथ्यात्व के स्वरूप का तथा श्लोक क्रमांक ६ में मिथ्यात्व की स्थिति का उल्लेख है । इसमें कहा गया है कि अभव्य जीवों का मिथ्यात्व अनादि-अनन्त है और भव्य जीवों का मिथ्यात्व अनादि-सान्त है।
४०६ जैन संस्कृत साहित्य का इतिहास, खण्ड २, पृष्ठ २६, प्रका. श्री मुक्ति कमल जैन मोहनमाला, बड़ौदा
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