Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा....
सप्तम अध्याय........{442} सागरमल जैन सामान्य रूप से भारतीय विद्याओं के और विशेष रूप से जैन विद्या के तलस्पर्शी विद्वान हैं । उन्होंने जैनधर्म-दर्शन, प्राकृत भाषा, आगम साहित्य, इतिहास, कला, संस्कृति आदि सभी पक्षों पर अपनी गवेषणापूर्ण लेखनी चलाई है । प्रस्तुत कृति भी गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में गवेषणापूर्ण दृष्टि से लिखी गई । प्रस्तुत कृति में जहाँ उन्होंने एक और गुणस्थान सिद्धान्त के पूर्व बीजों को विभिन्न प्राचीन स्तर के जैन ग्रन्थों में खोजने का प्रयास किया है और इस आधार पर इस तथ्य की स्थापना की है कि जैनधर्म-दर्शन में गुणस्थान सिद्धान्त का विकास कालक्रम में हुआ है । इस समस्त चर्चा में उन्होंने श्वेताम्बर आगम साहित्य और दिगम्बर आगम तुल्य साहित्य के साथ-साथ तत्त्वार्थसूत्र, कर्मग्रन्थ आदि को आधार बनाया है । उन्होंने विभिन्न ग्रन्थों को कालक्रम में स्थापित कर यह दिखाने का प्रयास किया है कि गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव और विकास किस क्रम से हुआ है। कृति के प्रथम अध्याय में उन्होंने इस तथ्य को स्पष्ट करने का प्रयास किया है कि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का विकास ऐतिहासिक क्रम में हुआ है । इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं कि गुणस्थान की अवधारणा के ऐतिहासिक विकास क्रम को समझने की दृष्टि से यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि न केवल प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर आगमों में, अपितु दिगम्बर परम्परा में आगम रूप से मान्य कसायपाहुडसुत्त में तथा तत्त्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य में गुणस्थान की अवधारणा का कहीं भी सुव्यवस्थित निर्देश उपलब्ध नहीं होता है । यद्यपि इन तीनों ग्रन्थों में गुणस्थान की अवधारणा से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्दों जैसे - दर्शनमोह उपशमक, दर्शनमोह क्षपक, (चारित्रमोह) उपशमक, (चारित्रमोह) क्षपक, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, केवली (जिन) आदि के प्रयोग उपलब्ध हैं । मात्र यही नहीं, ये तीनों ही ग्रन्थ कर्मविशुद्धि के आधार पर आध्यात्मिक विकास की स्थितियों का चित्रण भी करते हैं । इससे ऐसा लगता है कि इन ग्रन्थों के रचनाकाल तक जैन परम्परा में गुणस्थान की अवधारणा का विकास नहीं हो पाया था। प्रस्तुत कृति में ६ अध्याय है । इसके प्रथम अध्याय में उन्होंने गुणस्थान सिद्धान्त के उद्भव और विकास की चर्चा की है । इस अध्याय में उनका निष्कर्ष यह है कि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा लगभग पांचवी शताब्दी में सुव्यवस्थित हुई और इसी काल में विभिन्न गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों में बन्ध, सत्ता, उदय, उदीरणा आदि के सम्बन्ध निश्चित किए गए है । साथ ही गुणस्थान, जीवस्थान और मार्गणास्थान एक-दूसरे से पृथक करके उनके पारस्परिक सम्बन्धों को स्पष्ट किया गया है । उनकी यह भी मान्यता है कि प्रारम्भ में गुणस्थान के लिए जीवस्थान या जीवसमास शब्द का प्रयोग किया गया है । इसे उन्होंने समवायांग, जीवसमास, षट्खण्डागम के प्राथमिक उल्लेख के आधार पर सिद्ध करने का भी प्रयास किया है । प्रस्तुत कृति में द्वितीय अध्याय से लेकर चतुर्थ अध्याय तक उन्होंने तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बर साहित्य और दिगम्बर साहित्य के प्राचीन ग्रन्थों में गुणस्थान सिद्धान्त के बीज किस रूप में उपस्थित है, इसका अन्वेषणपूर्वक विश्लेषण किया है । गुणस्थान सिद्धान्त के ऐतिहासिक विकास क्रम को समझने की दृष्टि से यह चारों अध्याय शोधपूर्ण दृष्टि से लिखे गए हैं । इन अध्यायों में उन्होंने गुणस्थान सिद्धान्त के ऐतिहासिक विकासक्रम को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । डॉ. सागरमल जैन की प्रस्तुत कृति की विस्तृत समीक्षा डॉ. धरमचन्द जैन ने की है । इस सम्बन्ध में वे लिखते हैं कि डॉ. सागरमल जैन ने अपनी शोध-कृति में यह प्रतिपादित किया है कि जैनधर्म में इन चौदह गुणस्थानों की अवधारणा धीरे-धीरे विकसित हुई है।
डॉ. सागरमल जैन का मन्तव्य है कि गुणस्थान सिद्धान्त की सुव्यवस्थित अवधारणा चौथी और पांचवी शती ईस्वी के मध्य निर्मित हुई है । इस मन्तव्य का आधार भी जैन ग्रन्थ ही है, जिनमें गुणस्थान सिद्धान्त का क्रमिक विकास दिखाई पड़ता है। डॉ. जैन ने अपना यह मन्तव्य दिगम्बर, श्वेताम्बर एवं यापनीय सम्प्रदाय के मान्य ग्रन्थों एवं तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर निर्धारित किया है। यही नहीं, उन्होंने गुणस्थान सिद्धान्त के उल्लेख-अनुलेख के आधार पर अनेक जैन ग्रन्थों का पौर्वापर्य भी सिद्ध किया है । डॉ. सागरमल जैन का यह मौलिक विश्लेषण है कि गुणस्थान सिद्धान्त एवं चौदह गुणस्थानों की अवधारणा शनैः-शनैः विकसित हुई है । डॉ. जैन ने अपने मन्तव्य हेतु निम्नांकित प्रमुख तर्क दिए हैं -
(१) आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, ऋषिभाषित, दशवैकालिक, भगवती आदि प्राचीन स्तर के आगमों में गुणस्थान की अवधारणा का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है । श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम समवायांग में जीवस्थान के नाम से चौदह
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