Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP

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Page 528
________________ प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा........ नवम अध्याय ......{472} स्वतन्त्र रूप से लिखे गए ग्रन्थों के सम्बन्ध में चर्चा की है । जहाँ तक प्राकृत एवं संस्कृतभाषा में स्वतन्त्र रूप से गुणस्थान सिद्धान्त पर लिखे गए ग्रन्थों का प्रश्न है, उनमें रत्नशेखरसूरि कृत गुणस्थानक्रमारोह, विमलसूरि कृत गुणस्थानक्रमारोह, जयशेखर कृत गुणस्थानक्रमारोह, जिनभद्रसूरि कृत गुणस्थानक्रमारोह, देवचन्द्र कृत विचारसार प्रकरण अपरनाम गुणस्थानशतक प्रमुख है । इनमें भी रत्नशेखरसूरि कृत गुणस्थानक्रमारोह और देवचन्द्र कृत विचारसार प्रकरण ही अपने मुद्रित रूप में उपलब्ध हो सके हैं । शेष ग्रन्थों के सन्दर्भ में जिनरत्नकोष में प्राप्त सूचनाओं का उल्लेख कर सन्तोष करना पड़ा है, क्योंकि ये ग्रन्थ अभी तक हस्तलिखित प्रतियों के रूप में शास्त्र भण्डारों में संरक्षित हैं, किन्तु जहाँ तक आधुनिक युग का प्रश्न है हमें यह देखने को मिलता है कि आधुनिक युग में श्वेताम्बर आचार्यों एवं विद्वानों ने दिगम्बर विद्वानों की अपेक्षा गुणस्थान सिद्धान्त पर अपनी लेखनी विशेष रूप से चलाई है । आधुनिक युग की गुणस्थान सम्बन्धी रचनाओं में दिगम्बर परम्परा में हमें दो का ही उल्लेख उपलब्ध होता है । एक उल्लेख तो सम्भवतः दुढारीभाषा में रचित 'गुणस्थान वचनिका' का है और दूसरा उल्लेख डॉ. प्रमिला जैन के 'षट्खण्डागम में गुणस्थान विवेचन' का है। इनमें भी गुणस्थानवचनिका तो हमें उपलब्ध नहीं हुई, किन्तु डॉ. प्रमिला जैन का उपर्युक्त शोधप्रबन्ध प्रकाशित रूप में हमें उपलब्ध हुआ है । उसके अवलोकन से भी हमें यही लगा कि षट्खण्डागम मूल औ उसकी धवला टीका में गुणस्थान सिद्धान्त का जो विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है, उसका बहुत ही कम उपयोग प्रस्तुत शोधप्रबन्ध में हो पाया है । यद्यपि इस शोधप्रबन्ध का आकार तो बड़ा है, किन्तु यदि हम इसमें विशुद्ध रूप से गुणस्थान सम्बन्धी विवेचनाओं को देखें तो बहुत ही अल्प है । श्वेताम्बर परम्परा के आचार्यों एवं विद्वानों ने आधुनिक युग में गुणस्थान सम्बन्धी जो विवेचनाएं प्रस्तुत की या शोधपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं, उनमें आचार्य अमोलकऋषिजी कृत 'गुणस्थान रोहण अढीशतद्वारी' एक प्रमुख ग्रन्थ है । इसमें २५२ द्वारों में गुणस्थान सिद्धान्त के विभिन्न पक्षों को व्यापक रूप से प्रस्तुत किया गया है । यह ग्रन्थ लगभग ५०० पृष्ठों में रचित है और परम्परागत दृष्टि से गुणस्थान की अवधारणा के सम्बन्ध में एक समग्र विवेचन प्रस्तुत करता है । यद्यपि इसकी भाषा हिन्दी है, किन्तु वह भी लोकबोलियों के मिश्रण से युक्त है । दूसरे यह ग्रन्थ मात्र विवरणात्मक ही है। तुलनात्मक विवेचन या शोधपूर्ण दृष्टि से गुणस्थान सम्बन्धी विवेचन को सर्वप्रथम प्रस्तुत करने का श्रेय पंडित सुखलालजी को जाता है । उन्होंने देवेन्द्रसूरिकृत कर्मग्रन्थ की भूमिकाओं में गुणस्थान सिद्धान्त का न केवल विवेचन किया है, अपितु हिन्दू और बौद्ध परम्पराओं के साथ उनका तुलनात्मक विवरण भी प्रस्तुत किया है । गुणस्थान सिद्धान्त पर डॉ. नथमलजी टांटिया एवं प्रो. कलघटगी ने क्रमशः 'स्टडीज इन जैन फिलोसोफी' तथा 'जैन सायकोलॉजी' में पर्याप्त प्रकाश डाला है, किन्तु अंग्रेजी भाषा में हमारी गति न होने के कारण हमने इस सम्बन्ध में विशेष प्रकाश अपने शोधग्रन्थ में नहीं डाला है। फिर भी इन दोनों विद्वानों के विचार संक्षिप्त होते हुए भी अंग्रेजी भाषा में गुणस्थान की अवधारणा को प्रस्तुत करने में अत्यन्त महत्वपूर्ण माने जा सकते हैं । स्थान सिद्धान्त पर हिन्दी भाषा में स्वतन्त्र ग्रन्थों के लेखन की दृष्टि से बीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशक का अन्तिम चरण अति महत्वपूर्ण है । यद्यपि इसके पूर्व हिन्दी भाषा में गुणस्थान सिद्धान्त सम्बन्धी कुछ आलेख प्रकाशित हुए हैं, किन्तु गुणस्थान के सम्बन्ध में स्वतन्त्र ग्रन्थों का प्रकाशन ईस्वी सन् १६६६ से ईस्वी सन् १६६८ के बीच ही हुआ है । इसमें सर्वप्रथम डॉ.सागरमल जैन के 'गुणस्थान सिद्धान्तः एक विश्लेषण' नामक ग्रन्थ का क्रम आता है । यह ग्रन्थ मूलतः शोधपूर्ण दृष्टि से लिखा गया है । इस ग्रन्थ के प्रथम पांच अध्यायों में लेखक ने जैनदर्शन में गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा का क्रमिक विकास किस रूप में हुआ है, इसे मूल ग्रन्थों के प्रमाणों के साथ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। डॉ. जैन की मान्यता यह है कि गुणस्थान की अवधारणा लगभग पांचवीं शताब्दी के बाद ही अस्तित्व में आई है । यद्यपि उन्होंने गुणस्थान सिद्धान्त के बीजों का अस्तित्व गुणश्रेणी की अवधारणा के रूप में तथा आगमों के प्रकीर्ण संदर्भों के आधार पर इससे पूर्ववर्ती माना है, फिर भी उनका • निष्कर्ष तो यही है कि गुणस्थान सिद्धान्त महावीरकालीन नहीं है । वह महावीर के लगभग १००० वर्ष पश्चात् ही अस्तित्व में आया है । उनकी इस मान्यता के सन्दर्भ में डॉ धरमचंद जैन की समीक्षा का उल्लेख भी हमने इस शोधप्रबन्ध में किया है । फिर भी हम यह मानने को तो विवश होते हैं कि आज जो भी साहित्यिक सूचनाएं उपलब्ध हैं, उनके आधार पर डॉ. सागरमल जैन की स्थापना में तार्किक बल है । इस कृति के पश्चात् हमारे सामने आचार्य नानेश द्वारा रचित 'गुणस्थान स्वरूप और विश्लेषण' · तथा आचार्य जयन्तसेनसूरिजी द्वारा रचित 'आध्यात्मिक विकास की भूमिकाएँ एवं पूर्णता' - ये दो कृतियाँ उपलब्ध होती है । जहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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