Book Title: Prakrit evam Sanskrit Sahitya me Gunsthan ki Avadharana
Author(s): Darshankalashreeji
Publisher: Rajrajendra Prakashan Trust Mohankheda MP
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प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में गुणस्थान की अवधारणा..
नवम अध्याय........{470)
मिलती है, दिगम्बर ग्रन्थों में उस अर्थ के लिए सिर्फ आवर्जितकरण-यह एक संख्या है।
वेताम्बर ग्रन्थों में काल को स्वतन्त्र द्रव्य भी माना है और उपचरित भी, किन्तु दिगम्बर ग्रन्थों में उसको स्वतन्त्र ही माना है । स्वतन्त्र पक्ष में भी काल का स्वरूप दोनों सम्प्रदाय के ग्रन्थों में एक-सा नहीं है ।
(१३) किसी-किसी गुणस्थान में योगों की संख्या गोम्मटसार में कर्मग्रन्थ की अपेक्षा भिन्न है ।
(१४) दूसरे गुणस्थान के समय ज्ञान तथा अज्ञान माननेवाले-ऐसे दो पक्ष श्वेताम्बर ग्रन्थों में है, परन्तु गोम्मटसार में सिर्फ दूसरा पक्ष है।
(१५) जीव सम्यक्त्व सहित मरकर स्त्रीरूप में पैदा नहीं होगा, यह बात दिगम्बर सम्प्रदाय को मान्य है, परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय को यह मन्तव्य इष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें भगवान मल्लिनाथ का स्त्रीवेद तथा सम्यक्त्व सहित उत्पन्न होना माना गया है। कर्मग्रन्थिकों और सैद्धान्तिकों का मतभेद :
श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के उपर्युक्त मतभेद के अतिरिक्त कर्मग्रन्थों और आगमिक परम्परा में कुछ मतभेद देखे जाते हैं । इनका उल्लेख पं. सुखलालजी ने निम्न रूप में किया है।६५
) सूक्ष्म एकेन्द्रिय आदि दस जीवस्थानों में तीन उपयोगों का कथन कार्मग्रन्थिक मत का फलित है । सैद्धान्तिक मत के अनुसार तो छः जीवस्थानों में ही तीन उपयोग फलित होते है और द्वीन्द्रिय आदि शेष चार जीवस्थानों में पांच उपयोग फलित होते
(२) अवधिदर्शन में गुणस्थानों की संख्या के सम्बन्ध में कर्मग्रंथिकों तथा सैद्धान्तिकों का मतभेद है। कर्मग्रन्थकार उसमें नौ तथा दस गुणस्थान मानते हैं और सैद्धान्तिक उसमें बारह गुणस्थान मानते है।
(३) सैद्धान्तिक दूसरे गुणस्थान में ज्ञान मानते हैं, पर कर्मग्रन्थकार उसमें अज्ञान मानते हैं ।
(४) वैक्रिय तथा आहारक शरीर बनाते और त्याग के समय कौन-सा योग मानना चाहिए, इस विषय में कर्मग्रन्थकारों का और सैद्धान्तिकों का मतभेद है ।
(५) ग्रंथिभेद के अनन्तर कौन-सा सम्यक्त्व होता है, इस विषय में सिद्धान्त तथा कर्मग्रन्थ का मतभेद है।
जहाँ तक इन कर्मग्रन्थों के कालक्रम का प्रश्न है चन्द्रर्षि कृत श्वेताम्बर पंचसंग्रह, कुछ प्राचीन कर्मग्रन्थ और वि पंचसंग्रह लगभग समकालीन ही है । विद्वानों की दृष्टि में ये सभी ग्रन्थ छठी-सातवीं शताब्दी के मध्य रचित है । इनके पश्चात् दसवीं शताब्दी में रचित गोम्मटसार और उसके पश्चात् दिगम्बर परम्परा के दोनों पंचसंग्रह और श्वेताम्बर परम्परा के प्राचीन कर्मग्रन्थ तथा देवेन्द्रसूरिकृत नवीन कर्मग्रन्थों का स्थान है । यह सम्पूर्ण साहित्य छठी शताब्दी से तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी के मध्य रचित है और गुणस्थान सिद्धान्त का समान रूप से विस्तृत एवं व्यापक विवेचन प्रस्तुत करता है।
श्वेताम्बर परम्परा के आगम साहित्य और उसकी आगमिक व्याख्याओं, दिगम्बर आगम तुल्य ग्रन्थों तथा तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओं तथा कर्मसाहित्य के श्वेताम्बर और दिगम्बर कर्मग्रन्थों में गुणस्थान सम्बन्धी इस चर्चा के पश्चात् प्रस्तुत कृति के छठे अध्याय में हमने श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्परा के कुछ महत्वपूर्ण प्राकृत और संस्कृत ग्रन्थों के आलोडन का प्रयत्न किया है । श्वेताम्बर परम्परा में हमें इन ग्रन्थों में सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थ जीवसमास प्रतीत होता है । पूर्वाचार्यकृत इस ग्रन्थ में गुणस्थान सिद्धान्त का संतोषजनक विवेचन उपलब्ध हुआ है । यह ग्रन्थ लगभग पांचवीं शताब्दी का माना जा सकता है । पंडित हीरालालजी जैसे दिगम्बर विद्वानों ने इसे षट्खण्डागम के प्रथम खण्ड का आधारभूत ग्रन्थ माना है । श्वेताम्बर परम्परा की दृष्टि से यह गुणस्थान का विवेचन करनेवाला प्रथम ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ में चौदह गुणस्थानों की चर्चा के साथ उनका चौदह मार्गणाओं में अवतरण भी किया गया है । यद्यपि जीवसमास का गुणस्थान सम्बन्धी यह विवेचन षटखण्डागम और सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा
४६५ दर्शन और चिन्तन भाग-२, पं. सुखलालजी, प्रकाशकः पं. सुखलालजी सन्मान समिति, गुजरात विद्यासभा-अमदाबाद, पृ. ३४४
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